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________________ संकल्पित, समर्पित व सर्वस्व सौंपने की तत्परता ही युवा की पहचान क्षुद्रताओं के सारे बंधन टूट जाएंगे। जहां 'स्व' ही सब जगह दिखाई देगा, कोई भी 'पर' नहीं रहेगा, कोई भिन्न नहीं - सर्व में 'स्व' के दर्शन तो 'स्व' में 'सर्व' के दर्शन । 'पर' की विजय में घृणा है, हीनता है, व्यथा है, व्याकुलता है और है अहंकार का विस्तृत - विकृत रूप । मैं बड़ा, वह छोटा ; मैं बलवान, वह निर्बल; मैं शक्तिशाली, वह कमजोर; मैं दिव्य, वह तुच्छ । मैं सर्वस्व, वह ना कुछ, न जाने अहंकार के कितने घिनौने रूप छिपे होते हैं उस विजय में, जहां वह विजित होकर भी पराजित है और जहां 'स्व' पर विजय हुई, वहां पर 'स्व-पर' का भेद ही नहीं रहा - 'स्व' की विजय में सर्व पर विजय है । पर की विजय में स्व की विजय भी संदिग्ध रहती है-कितना अन्तर है? प्रभु महावीर कहते हैं-'अप्पा चेव दमेयव्वो' अर्थात् अपना दमन कर। कहां तू दूसरों का दमन करता है? अपने को जीत तो दूसरा स्वयमेव जीत लिया जाएगा। जहां तू दूसरों को जीतने जाएगा, उसको तू जीत नहीं पाएगा और अपने आप से भी पराजित हो जाएगा । सत्य को समझ... दूसरों को जीतने की वासना भयंकर है, इसके कीटाणु बड़े ही जहरीले हैं, जरा बच कर रहना। इन जहरीले कीटाणुओं का असर जन्म-जन्मान्तर चलता रहता है, किसी भी जन्म में बच नहीं पाएगा। वैर से वैर बढ़ता है और प्रेम से प्रेम बढ़ता है। दूसरों की विजय वैर से नहीं, प्रेम से कर, वैर से किसी को जीता नहीं जा सका है आज तक... यह जीत कभी हो भी जाए तो क्षणिक, अस्थायी और आकांक्षाओं तथा निराशाओं से भरी होती है । सुख, शांति, समृद्धि, उल्लास एवं संतुष्टि देने वाली यह विजय नहीं हो सकती। मानसिक पीड़ा एवं व्याकुलता कितनी बढ़ती है, केवल 'पर' की विजय से ?... कुणिक का संहार क्यों हुआ? विजय की सही परिभाषा और अर्थवत्ता किसमें रही है कि विजेता सदा-सदा विजित के हृदयासन पर विराजमान रहे? यह शक्ति एकमात्र प्रेम में रही हुई है। प्रेम ने हृदयासन पर साम्राज्य बनाया और चलाया। घृणा ने, तिरस्कार ने या वैर ने कभी किसी के हृदय पर अपना आसन नहीं बिछाया। प्रेम की अपूर्व शक्ति को पहचान, उसे अपनी ही शक्ति जान । तू जितना प्रेम-सहयोग दूसरों को देगा, उतना ही नहीं, उससे कई गुना प्रेम और सहयोग तुझे मिलेगा। हृदय की संकुचितताक्षुद्रता को मिटा...स्वार्थ के घेरों को तोड़ और विराट प्रेम को धारण कर, अपने तरल ममत्व को सब पर छांट दे... फिर देख, कैसी होती है तेरी विजय ? कहीं कोई शत्रु नहीं बचेगा, जिसे जीतना कठिन हो ! । तब समझना कि प्रेम के प्रताप से ईश्वरत्व तक का जागरण कितनी सहजता से हो जाता है । ये हृदयोद्गार मनोयोग की विशेषता को स्पष्ट करते हैं कि मन में विजय की आकांक्षा सदा जुड़नी चाहिए प्रेम, सेवा और त्याग से, जिसके लिए पहले स्वयं को जीतना होता है अर्थात् अपने ही चरित्र को उज्ज्वल बनाना होता है। तब वह विजयाकांक्षी ऊर्जावान युवक दूसरों को जीतने के लिए कर्मरत होता है अपने हार्दिक प्रेम, सुखदायक सेवा एवं अद्भुत त्याग के साथ। फिर कौन ऐसा होगा उसके प्रेम सूत्र में न बंधना चाहेगा यानी कि अपने जीवन को उसका अनुगामी न बनाना चाहेगा? युवा वर्ग अपने इस शक्ति प्रवाह की प्रबलता को समझे, उसका सदुपयोग करे और सच्ची विजय प्राप्त करे । युवा शक्ति की सार्थकता इसी में है। वह युवा ही क्या, जो उच्चतम महत्त्वाकांक्षाओं से अभिभूत न हो, संकल्पित और समर्पित न हो तथा अपना सर्वस्व दे देने के लिए तत्पर न हो? 413
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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