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________________ सुचरित्रम् सारी प्रवृत्तियां तो मनोयोग पूर्वक ही संचालित हो रही हैं। हम अपने इस विराट दर्शन का स्वरूप समझें तथा इससे दूसरों को समाधि देने का मानसिक संकल्प पैदा करें। आप कहेंगे कि हमारे सोचने और संकल्प करने से क्या कोई सुखी हो सकता है? अगर ऐसा हो तो सभी सुखी हो जाए, कोई दुःखी न रहे-क्या ऐसा नहीं? यह किसी सामान्य व्यक्ति का चिन्तन हो सकता है किन्तु तत्त्वज्ञ इस चिन्तन से सहमत नहीं होंगे, क्योंकि वे यह मानते हैं कि समाधि मन से भी दी जाती है ता वचन और तन से भी। मन में शुभ भावनाओं का जागरण कब होता है, जब वह दूसरी आत्माओं के अस्तित्व को स्वीकार करता है तथा उनके सुख-दुःख को पहचानता है। जिस व्यक्ति ने पर-संवेदन का अनुभव नहीं किया, वह स्वसंवेदन का भी सही अनुभव कैसे कर सकता है? मानसिक उदारता जिसकी बन जाती है, वह मात्र अपना ही नहीं सोचता, वह दूरदृष्टि के साथ विशाल चिन्तन में संलग्न हो जाता हैयही उसकी महानता होती है। इसी विश्लेषण को युवा शक्ति के साथ जोड़ कर देखिए तो चरित्र विकास का सुन्दर भविष्य भी स्पष्ट हो जाता है। युवा वर्ग मनोयोग और उससे प्राप्त शक्ति प्रवाह का वचन योग तथा काय योग में सदुपयोग करेगा तो अवश्य उसका व्यक्तित्व प्राभाविक बनेगा तथा उसकी चरित्रशीलता प्रेरणाप्रद, किन्तु साथ ही संकल्प, त्याग एवं समर्पण से क्षमतावान बन कर उसकी ऊर्जा जब दूसरों के चरित्र को उज्ज्वल बना कर उसके विकास की क्रियाशीलता में प्रवृत्त होगी तो उससे होने वाला बहुआयामी नवनिर्माण अनुपम होगा। चरित्र सम्पन्नता के लिए युवा व्यक्तित्व भी है तो संस्थान भी : क्षमतावान युवा को कभी एकाकी मत मानिए, वह अपनी उमंग, ऊर्जा और उदारता के कारण एक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक सशक्त व्यक्तित्व होता है-वह व्यक्तित्व जो निःस्वार्थ वृत्ति में सबको अपना योगदान करने को उत्सुक रहता है-उच्चतम त्याग एवं बलिदान के लिए सदैव तत्पर रहता है। परन्तु जब उसका व्यक्तित्व अनेक युवानों के व्यक्तित्वों के साथ जुड़ कर सामूहिक व्यक्तित्व का रूप ले लेता है तब वह संस्थान बन जाता है। यही कारण है कि युवा व्यक्तित्व भी है और संस्थान . भी। ऐसा युवा सर्वत्र विजय की कामना करे-यह उचित भी है और वांछनीय भी, किन्तु चरित्र विकास का क्षेत्र हो या परहित साधन का कोई अन्य क्षेत्र उसे विजय के स्वरूप को भलीभांति हृदयंगम कर लेना चाहिए, जिससे युवा शक्ति का उपयोग सर्वत्र गौरव का कारण और विषय बने। विजय की खोज में निरत है युवक...खनखना रही हैं तलवारें विजय के लिये...कहां है वह विजय? वह विजय पराजय में बदलती जा रही है और वह विजय स्वप्न मात्र बनकर रह गई है। विजय किस पर? दूसरों पर या अपने आप पर? शरीर पर या आत्मा पर? किससे विजय? तलवार से या प्रेम से, स्नेह से? सोचकर बेहाल है, पसीने से तरबतर है...अनन्तकाल से समर भूमि में जूझ रहा है, विजय के लिए तड़प रहा है परन्तु जीवन में पराजय का मुंह ही दिखता रहा है, क्या यही नियति है या कुछ बदलेगी भाग्य रेखा...इस विजय की पृष्ठभूमि में बर्बरता नहीं, हृदय का उमड़ता हुआ सात्विक प्रेम का निर्झर है। यह विजय दूसरों पर नहीं, अपने आप पर है। यह विजय रक्तपात के लिए नहीं, यह आत्म शान्ति के लिए है। यह विजय पाशविकता से नहीं, सम्पूर्ण दैविकताओं के लिए है। हां...यही सच्ची शूरवीरता है और सच्ची विजय भी यही है। इस विजय की मनोभूमि से 412
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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