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सुचरित्रम्
है। आत्मा का यह स्वभाव हम जान चुके हैं कि सदा शुद्ध और शुभ होता है, अतः शुद्धता व शुभता के क्षेत्र में और इस दृष्टि से चरित्र विकास के कार्य में आत्मा की आवाज का सर्वाधिक महत्त्व माना जाना चाहिए। - आत्मा की आवाज का मुखर होना व्यक्तित्व के प्राभाविक निर्माण का स्पष्ट लक्षण है। ज्यों-ज्यों आत्मा की आवाज सुनी जाएगी और अमल में लाई जाएगी, त्यों-त्यों आत्मानुभूति सुस्पष्ट एवं सुस्थिर बनती जाएगी। तब वह व्यक्तित्व महानता का बाना ओढ़ने लगेगा यानी कि बाहर की दुनिया उसे एक महान् व्यक्ति के रूप में देखने लगेगी और मान देने लगेगी। उसका नेतृत्व सबल बनता जाएगा तथा वह अधिक से अधिक संख्या में व्यक्तियों को जागृत एवं साध्य के प्रति प्रेरित कर सकेगा। आत्म-विकास के साथ सर्वात्म-विकास का महाद्वार जब खुल जाएगा तो फिर जागृति और कर्मठता का प्रसार चारों ओर आसानी से व्यापक बनता जाएगा। युवाओं में क्षमता होती है अपने और दूसरों के चरित्र को उज्ज्वल बनाने की :
युवावस्था क्षमतावान ही नहीं, क्षमताओं का भंडार होती है। जिस साध्य के प्रति युवाजन निष्ठावान बन जाए, उनकी क्षमताएं उन्हें कभी-भी निराश नहीं करती। इन अजेय क्षमताओं का रहस्य यह है कि युवा वर्ग इन क्षमताओं का प्रयोग अधिकांशतः दूसरों के हित साधन के लिए ही करना चाहता है, क्योंकि युवान का दिल ही होता है जो ऊंचा से ऊंचा त्याग करने को उत्सुक रहता है। इस कारण यदि युवा वर्ग चरित्र विकास के अभियान के प्रति संकल्पित एवं समर्पित हो जाएं तो अवश्य उसकी क्षमताएं फलीभूत होगी कि वह अपने तथा दूसरों के चरित्र को उज्ज्वल बनाने के महद् कार्य में सफलता प्राप्त करे। उन्हें भगवती सूत्र का यह संदेश सदा ध्यान में रखना चाहिए कि जो दूसरों को समाधि (शान्ति) देता है, वह स्वयं भी समाधि पाता है (समाहि कारएणं तमेव समाहिं पडिलब्भइ-7-1)। समाधि देने से ही समाधि की प्राप्ति होती है, जो अस्त्र-शस्त्रों अथवा अन्य भौतिक साधनों की सहायता से कदापि प्राप्त नहीं की जा सकती है। वास्तविकता तो यह है कि बाहर के शस्त्रास्त्र भी तभी उठाये जाते हैं, जब भीतर के शस्त्र (दुष्ट भाव) सक्रिय होते हैं। युवावर्ग अपनी शक्ति के प्रवाह में कभी भ्रमित न हो जाए, इसके लिए ज्ञातव्य है कि बाहर के शस्त्र तभी उपयोग में आते हैं, जब भीतर के शस्त्र-काम, क्रोध, ममकार, अहंकार, लोभ, ईर्ष्या आदि सक्रिय होते हैं। कोई भी युवक जब अपनी शक्ति के मद में अंधा होता है, तभी भीतर-बाहर के शस्त्र सक्रिय होते हैं और वह विपथगामी बन जाता है। भीतरी शस्त्रों की तो कोई गिनती ही नहीं है-वृत्तियां, विकार, विषमताएं अनेकानेक प्रकार की होती हैं। इन शस्त्रों को सक्रिय बनाने वाला स्वयं असमाधि को प्राप्त होता है तथा दूसरों को भी असमाधि में घसीटता है। इसके विपरीत यदि कोई भी और खास करके युवक स्वयं के तथा दूसरों के चरित्र को विकसित करने का निर्णय लेता है तो वह स्वयं के साथ सबको समाधि देने वाला बन जाता है।
समाधि के तीन सूत्र हैं-मनोयोग संवर, वचनयोग संवर तथा काययोग संवर। इनके विपरीत असमाधि के सूत्र हैं। हम अपने लिए समाधि का सुख चाहते हैं तो हमें दूसरों को समाधि का सुख देना ही होगा। दूसरों को असमाधि देकर स्वयं की समाधि को सुरक्षित रखना असंभव है। खून से
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