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________________ संकल्पित, समर्पित व सर्वस्व सौंपने की तत्परता ही युवा की पहचान हैं। देखना यह है कि पास में रहा हुआ तत्त्व ही हमें महसूस क्यों नहीं होता है? अन्तरानुभूति लेंगे तो यह सत्य अनुभव में भी आ जाएगा कि उस आनन्द को हमने ही अपने वैभाविक दोषों से ढक दिया है और जब भी उन दोषों से छुटकारा पा लेंगे, आनन्द प्रकट हो जाएगा-प्रकट क्या हो जाएगा, हमारा भीतर-बाहर सबका सब अस्तित्व ही आनन्दमय बन जाएगा। युवाजन इस सत्य को स्वयं समझें तथा अनजान लोगों को समझावें-यह समझ चरित्र विकास के लिए आवश्यक तत्त्व है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जार्ज बनार्ड शॉ की एक व्यावहारिक उक्ति है-तर्कशील व्यक्ति स्वयं को विश्व की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाल लेता है, किन्तु तर्क के पीछे नहीं अपने व्यक्तित्व की विवेकशीलता एवं चरित्रबल पर चलने वाला व्यक्ति विश्व को अपनी प्रगतिशील धारणा के अनुरूप मोड़ने की चेष्टा करता रहता है। इस कारण विश्व में जो भी प्रगति देखने को मिलती है उसका श्रेय ऐसे व्यक्तियों को ही जाता है। जागृति एवं कर्मठता की चुनौती का उत्तर मिलेगा आत्मा की आवाज में: किसी भी चुनौती पर विजय वही प्राप्त कर सकता है जो अपनी आत्मा की आवाज को सुनता है और उसी का अनुसरण करता है, क्योंकि उसकी आत्मा वैभाविक दोषों के चक्र से छुटकारा पाती हुई अपने स्वभाव में रमण कर रही होती है। यवावस्था जीवन का वह बिन्द होती है। जहां से कर्म शक्ति का आविर्भाव होता है अर्थात् सब कुछ नवीन-विचार उत्साहपूर्ण और कर्म साहसपूर्ण। प्रगति की जिस राह पर वह चल पडे-उसकी जीत सनिश्चित। ऐसे स्फर्तिवान एवं ऊर्जावान यौवन का धनी क्या नहीं कर गुजर सकता? वह धार ले तो अपने चरित्र की यौवनगत शुद्धता एवं शुभता को अपने जीवन का स्थायी अंग बना ले और इन मनोवृत्तियों को जन-जन के हृदय में प्रकाशित कर दे-काश कि वह धारे। यहां धारने का अर्थ संकल्पबद्ध होने से है। किसी भी चुनौती में वह ताकत नहीं जो किसी युवक या युवती के अदम्य साहस को तोड़ दे। यह हकीकत ही विश्वास पैदा करती है कि युवा शक्ति किसी भी चुनौती को झेल कर उस पर विजय प्राप्त करने में समर्थ होती है। चरित्र विकास के अभियान को सफलतापूर्वक चलाने में जागृति और कर्मठता की जो चुनौती युवा वर्ग के समक्ष है, उस पर वह अवश्य ही विजय प्राप्त कर सकता है-इसमें कोई संदेह नहीं। युवा वर्ग की विजय निर्भर करती है उस आन्तरिक शक्ति एवं आत्मिक जागृति पर, जिससे उसका कर्मयोग सक्षम बनता है। कर्मयोग की प्रबलता से कुशलता तथा कुशलता से सफलता मिलती है। कर्मयोग का अर्थ है अपने कर्तव्यों का ईमानदारी व सच्चाई से निर्वाह करना, अपने सामने आने वाली सामाजिक समस्याओं का व्यापक जनहित की दृष्टि से समाधान खोजना और फिर समाधान के क्रियान्वयन में अपना समग्र सामर्थ्य जुटा कर उसे सफल बनाना। यह कर्मयोग अपने लिए और सबके लिए कर्मरत होता है। कर्मयोग की जड़ होती है स्वयं की आत्मा में, अतः उसका व्यवहार आत्मा की आवाज के अनुसार होना चाहिए। आत्मा की जागृति में व्यक्ति-व्यक्ति का अन्तर हो सकता है किन्तु अप्रत्यक्ष-सी जागृति सभी व्यक्तियों में अवश्य होती है जो प्रतिक्षण अपनी आवाज उठाती है। यह अवश्य है कि आत्मा की जागृति को अधिक स्पष्ट, अधिक क्रियाशील तथा अधिक सुदृढ़ बनाते रहने का प्रयास चलता रहना चाहिए। आत्मा की आवाज पर उठाया गया कोई भी कदम कभी विफल नहीं होता क्योंकि उसके क्रियान्वयन में पूरी आत्मशक्ति नियोजित हो जाती 409
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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