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सुचरित्रम्
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मन में असुरक्षा एवं भय के भाव ही ज्यादा पैदा करते हैं। जीवन की जटिलताओं को मिटाने की प्रेरणा या शिक्षा देने के स्थान पर उनको डराया जाता है और जीवन की धारा को अपने-अपने निहित स्वार्थों के अनुसार मोड़ने की चेष्टाएं चलती है। भय वैचारिकता तथा प्रतिभा को कुंठित करता है और मनुष्य के सोच को कुंद बना कर उसे परावलम्बी बना देता है।
इस दृष्टि से मनुष्यों के मन में सच्ची प्रतिभा के प्रस्फुटन की अपेक्षा है। सच्ची प्रतिभा वह होती है जो मनुष्य को स्वयं विचार करने तथा अपने विचारानुसार निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करती है। विश्व में आज दुःख की गहराई जिस कदर बढ़ रही है, उसका मूल कारण यही है कि बहुसंख्या की प्रतिभा को निष्क्रिय बना दिया गया है। वह सोच नहीं सकती, निर्णय नहीं ले सकती-फिर उसके हितों का संरक्षण कौन करेगा? सच कहें तो इसी संरक्षण की बन्दरबांट हो रही है। राजनेता कहते हैं कि वे बहुसंख्यक जनता के हितों के रखवाले हैं। धर्मनायक बताते हैं कि उन्हीं के उपदेशों का अनुसरण करके दुःख को दूर किया जा सकता है। संस्थाओं के संचालक आश्वस्त करते हैं कि अज्ञान और अभाव में पंगु बनी बहुसंख्या का उत्थान उनकी संस्थाएं ही कर पाएगी । यों राजनीति, धर्मनीति और समाजनीति के झंड़ों पर झंड़ें गड़ रहे हैं लेकिन बहुसंख्या की दुर्बलता कम नहीं हो रही, उनके पांवों में खड़े होने की ताकत पैदा नहीं हो रही। बहुसंख्या को नासमझी के अंधेरे से बाहर निकालें, उनके मन में अपने हितों का सोच पैदा करें और उन्हें अपने पीछे चलाने की बजाए स्वयं निर्णय लेने तथा गति करने की शक्ति उनमें ही जगावें। यह प्रतिभा चरित्र निर्माण तथा विकास के क्षेत्र में रचनात्मक कार्य करने वाले युवा वर्गों में पहले प्रस्फुटित होनी चाहिए। जीवन के सार्थक प्रयासों में जुटने से प्रतिभा का प्रस्फुटन होगा और प्रतिभा की वह शक्ति युवा शक्ति के रूप में परिवर्तित होगी ।
युवाओं में वैसा सामर्थ्य होता है जो अपने व्यक्तित्व को स्थिति के अनुसार ढाल सकते हैं और उसे प्रखर, प्रबल और प्रचंड तक बना सकते हैं। वे ही अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से उन लोगों को स्वतंत्र बना सकते हैं, जो बंधे बंधाए संकुचित सोच में जकड़े रह कर अपनी बंधनग्रस्तता को तोड़ नहीं सकते हैं। जब तक लोगों की अन्तर्चेतना स्वतंत्र नहीं होती है, तब तक राजनीतिक, आर्थिक अथवा अन्य उपाय उन्हें बंधन मुक्त नहीं बना सकेंगे। इसलिए युवाओं को आगे बढ़ कर अपने समर्थ व्यक्तित्व से सामान्य जन को जगाना होगा, बल्कि जागृति का ऐसा दौर चलाना होगा कि वे फिर से सुलाए और निष्क्रिय न बनाए जा सकें। यह सुनिश्चित है कि सतत जागृत व्यक्ति ही अपने अस्तित्व का अनुभव कर सकता है तथा अपनी पहचान बना सकता है। उसके बाद ही उसकी मनःस्थिति ऐसी बन सकेगी कि वे बंधनों से दूर रहेंगे तथा अपनी स्वतंत्रताओं की स्वयं रक्षा कर सकेंगे।
आचार्य रजनीश एक स्थान पर कहते हैं- 'हमारी धारणा ऐसी बना दी गई है कि हमें आनन्द को प्राप्त करना चाहिए जो एकदम गलत धारणा है। कारण, सत्य यह है कि हम स्वयं अपने स्वभाव से आनन्द स्वरूप हैं, फिर आनन्द को प्राप्त करने का प्रश्न कहां रहता है?' एक दृष्टि से यह कथन सही है, क्योंकि जब आत्मा का मूल स्वभाव सत्-चित्-आनन्दमय है तो वह आनन्द तो हमारे पास में ही