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संकल्पित, समर्पित व सर्वस्व सौंपने की तत्परता ही युवा की पहचान
1. आत्म नियंत्रण : जहां मोटरगाड़ी में गति बढ़ाने का संयंत्र एक्सक्लेटर होता है, वहां गति रोकने वे नियंत्रित करने वाला संयंत्र ब्रेक भी होता है। कारण, गति है किन्तु यदि उस पर नियंत्रण नहीं है तो यह संभव नहीं होगा कि गति को रास्ता भटकने से रोकने की दृष्टि से उसे यथापथ मोड़ने का उपक्रम किया जा सके यानी कि सामने घातक बाधा आ जाने पर गति एकदम रोक दी जा सके। सच पूछा जाए तो गति के आंरभ के साथ ही नियंत्रण की व्यवस्था जरूरी है। व्यक्तित्व के स्वस्थ विकास के मार्ग पर आगे बढ़ते हुए अपनी ही आत्मा के नियंत्रण से बढ़ कर अन्य कौनसा नियंत्रण अधिक प्रभावी हो सकता है? इस दृष्टि से आत्म-नियंत्रण की पूरी महत्ता है। कैसे प्राप्त किया जा सकता है
-नियंत्रण? इस नियंत्रण का रहस्य धर्म में ही निहित होता है। पहले देखें कि अपनी गतिविधियों में अपनी ही आत्मा का नियंत्रण क्यों नहीं रह पाता है? व्यक्ति के जीवन में उसके मूल स्वभाव को विकृत करने वाले अनेक दोष संलग्न होते हैं और वे विकार मन और इन्द्रियों को मोहित करते रहते हैं तथा उन्हें आत्मा की आवाज की अवहेलना करने के लिए उकसाते रहते हैं। ये दोष इन वासनाओं तथा लालसाओं के रूप में होते हैं-क्रोध, अहंकार, राग, लोभ, भय आदि। ये दोष आत्म-नियंत्रण को शिथिल और भंग करवाते रहते हैं-इस कारण पहले इन दोषों पर नियंत्रण करना होगा अर्थात् मन और इन्द्रियों को आत्मा की आवाज के अनुसार चलने का अभ्यास कराना होगा। तब आत्मा का नियंत्रण स्थापित हो जायगा। जो तत्त्व अदृश्य या अप्राप्य हैं, उन पर भले विश्वास जमने में विलम्ब लगे, किन्तु जीवन व्यवहार में शान्तिपूर्ण एवं तनाव रहित वातावरण बनाने में योगदान करने वाले गुणों तथा तत्त्वों पर तो शीघ्र ही विश्वास जम सकता है-हां, इसके लिए सच्चे धर्म के प्रति-मानव धर्म के प्रति
आस्था होनी ही चाहिए। अपने मानसिक तथा भावनात्मक स्तर पर आवश्यक गुणों के संबंध में धर्म पर विश्वास न करना उचित नहीं होगा। कम से कम उपयोगिता तथा प्रत्यक्ष लाभ की दृष्टि से ही मूल्यवत्ता प्राप्ति हेतु धर्म के प्रति झुकाव होना चाहिए। यह मान लेना चाहिए कि आत्म-नियंत्रण की कुंजी धर्म के ही पास में है।
2. मनोबल : आत्मा और इन्द्रियों के बीच की कड़ी होती है मन और इसी कारण कहा गया है कि मन ही बंधन का कारण है तथा यही मन मोक्ष का भी कारण है (मनः एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः)। इसका अर्थ यह है कि मन जब इन्द्रियों का साथ देता है तो आकाश के समान अनन्त इच्छाओं (इच्छा हु आगाससमा अणंतिया) की पूर्ति का इन्द्रजाल दिखाता है और अनेक प्रकार के बंधनों से इस जीवन को जकड़ कर उसे निष्क्रिय करता रहता है। परन्तु यही मन इन्द्रियों का साथ छोड़ कर आत्मानुशासन में आ जाता है तब यही आत्मा का प्रमुख बल बन जाता है जिसे कहा जाता है मनोबल। मनोबल आन्तरिकता से परिपूर्ण होता है तथा जितने वैभाविक दोष हैं उन्हें घटाने-मिटाने में प्रवृत्त बनता है एवं आत्मा को उसके मूल स्वभाव में स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहता है। मनोबल जीवन में व्यक्तित्व-विकास का प्रमुख सम्बल बन जाता है। जीवन निरन्तर गतिशील रहता है और यदि इसे प्रगति की दिशा में गतिशील बनाए रखना है तो यह दायित्व मनोबल पूरे प्रभाव के साथ निभा सकता है। इस आत्मा में अनन्त विकास की अपार शक्तियां तथा संभावनाएं भरी पड़ी हैं, जिन्हें प्रकट करने के लिए आच्छादनों और आवरणों को दूर हटाना होगा। ये आच्छादन और आवरण हैं अतृप्त इच्छाओं के, विकृत दोषों के तथा विषमताजन्य विकारों के। इन्हें दूर हटाने के लिए मनोबल
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