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सुचरित्रम् ।
ही सक्षम होता है तथा यही मनोबल व्यक्तित्व के स्वस्थ विकास में भी पुष्ट सम्बल का काम देता है। जब जीवन में व्यक्तित्व का विकास प्रारंभ होता है तो मानव धर्म का शीतल स्पर्श मिलता है, जो बंधन मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार धार्मिक चेतना एवं सामाजिक चेतना के संगम से व्यक्तित्व के विकास में ही नहीं, बल्कि समाज के सर्वांगीण विकास में भी एक रचनात्मक क्रान्ति के दर्शन होते हैं। यह क्रान्ति समग्र जीवन में एकरूपता स्थापित करती है और यों व्यक्ति तथा समाज के पारस्परिक सहयोग से जीवन के उच्चतम लक्ष्यों को प्राप्त करना भी सहज हो जाता है। किन्तु इस समग्र विकास के मूल में दृढ़ एवं स्थिर मनोबल का मौजूद रहना अनिवार्य है।
3. सन्तुलन : नियंत्रण करने और गति करने की शक्तियों की उपलब्धि के साथ ही उस विवेक की नितान्त आवश्यकता होती है जो निर्देशित करे कि कब गति किस वेग से करनी है तथा किन दशाओं में किस प्रकार का नियंत्रण लागू किया जाना चाहिए। इस विवेक को संतुलन का नाम दें। यह संतुलन दो भिन्नताओं के बीच में अपना मार्ग बनाने की कला सिखाता है। सभी जानते हैं कि चाहे बाह्य जीवन की वस्तुएं हों या आन्तरिक जीवन की वृत्तियाँ-सब में पग-पग पर विभिन्नता दिखाई देती है, विपर्यास प्रतीत होता है तथा विरोधाभासों की झलक मिलती है। ऐसे में दो विरोधी विचार या अवस्थाएं सामने होती है जिनके बीच में से निर्वहन होकर आगे बढ़ना होता है। इस वक्त में संतुलन की ताकत आजमानी होती है। संतुलन का सादा-सा अर्थ तोलना यानी दो या अधिक विरोधी पक्षों का अपने विवेक के तराजू पर तोलना कि क्या हेय है और क्या ग्राह्य और फिर ग्राह्य को ग्रहण कर लेना-यह है उपयोगिता संतुलन (बैलेन्स) की। जैसे रस्सी पर अपने करतब दिखाता हुए नट इधरउधर झुकते हुए भी अपना सन्तुलन बनाए रखता है और आगे चलता रहता है या एक साइकिल चालक समतल या असमतल दोनों प्रकार की भूमियों पर बैलेंस रखते हुए समान गति से दौड़ता रहता है। सन्तुलन इच्छाओं और वासनाओं के अभाव में अपने मनोबल को गतिशील एवं प्रगतिशील बनाए रखने की सर्वोत्तम कला है। ___सार यह है कि नियंत्रणहीनता की कोई गति नहीं, हां, दुर्गति जरूर हो सकती है और नियंत्रण तो है किन्त मनोबल नहीं है तो हाथ में तो होते हए भी ब्रेक को समय पर दबा कर गति को रोक लेना कठिन हो जाएगा। नियंत्रण भी है और मनोबल भी है किन्तु सन्तुलन नहीं तो वैसा व्यक्तित्व विवेकहीन होने से समय पर यथोचित निर्णय नहीं ले सकेगा जिसके कारण मनोबल टूट सकता है या नियंत्रण भंग हो सकता है। अतः व्यक्तित्व के स्वस्थ विकास के लिए तीनों गुण-आत्म नियंत्रण, मनोबल तथा सन्तुलन अत्यावश्यक है और इन्हीं गुणों की सहायता से चरित्र का विकास भी सहजतापूर्वक किया जा सकता है। जीवन के सार्थक प्रयास, प्रतिभा का प्रस्फुटन एवं युवा शक्ति :
विश्वात्मवाद के विकसित एवं फलित होने की वर्तमान अवस्था में इस विश्व को एकता, सौहार्द्रता एवं सहयोगिता के सूत्रों से जोड़ने के लिए जीवन के क्या सार्थक प्रयास हो सकते हैं अथवा मानव चरित्र के विकास को क्या दिशा दी जाए कि वह विश्व सम्पूर्ण मानव जाति एवं प्राणियों के
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