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________________ सदृढ़ संकल्प बिना चमत्कार असंभव की जा सके। आप बाहर का कोई भी कार्य भले करते रहें, किन्तु भीतर में अपनी आत्मा की आवाज सुनने का अभ्यास भी करते रहें। वही बात है कि बाहर में कर्ता और भीतर में दृष्टा। कर्ता और दृष्टा एक साथ बने रहने में कोई व्यवधान नहीं आता, बल्कि दोनों क्षेत्र सुघड़ता से कार्य करने लगते हैं। इसकी सफलता सतत जागरूकता में छिपी होती है। वह जागरूकता निरपेक्ष हो। वस्तुतः ध्यान को सब ओर से कट कर कुछ करने के अनुष्ठान के रूप में देखने की अपेक्षा इस रूप में देखना विशिष्ट रूप से फलदायी होता है कि आप अपने सामने जो कुछ कर रहे हैं, उसके संबंध में भीतर-बाहर से जागृत रहें और अपने दृष्टा भाव को जागृत रखें। ऐसे ध्यान योग की साधना करने वाला स्वयं तो चरित्रशील होता ही है किन्तु चरित्रशीलता का ऐसा प्रभा मंडल रच देता है कि उसके सम्पर्क में आते ही चरित्रहीनता की कड़ियां खुद-ब-खुद टूटने लगती है और चरित्र निर्माण की क्रमिकता शुरू हो जाती है। दृष्टा भाव यानी सतत ध्यान योग के सुपरिणाम आश्चर्यजनक रीति से सामने आते हैं। सामाजिक अन्याय को मिटाने से मिटेगी चरित्रहीनता : - समाज, राष्ट्र या अन्य प्रकार के समूहों में जब विभिन्न वर्गों के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार पनपता है तथा निहित स्वार्थी वर्ग उस अन्याय के जरिये अपनी स्वार्थ पूर्ति करता है, तब एक ओर सामाजिक अन्याय की जड़ें मजबूत होती है तो दूसरी ओर चरित्रहीनता की जटिलता भी पेचीदी बनती जाती है। सामाजिक अन्याय के फलस्वरूप समाज में विभिन्न प्रकार की विषताएं बढ़ती हैं और विकृतियां फैलती हैं। अल्पसंख्या में लोग अर्थ आदि अन्यान्य शक्तियों से सम्पन्न होते हैं तो बहुसंख्या शोषण व दमन से पीड़ित होकर तरह-तरह की अभावग्रस्तता से दुःखी बन जाती है। फिर धनाढ्य वर्ग का चरित्र गिरता है धन के मद में तो निर्धन वर्ग विवशताओं के दबाव में अपने चरित्र को खोता है। इस प्रकार चरित्रहीनता की दोहरी मार ऐसी होती है कि समचा समाज चरित्र की अपनी पहचान गमा बैठता है। चरित्रहीनता सामाजिक अन्याय और विषमताओं के वातावरण से बढ़ती और फैलती है तो इसका निदान भी साफ है कि सामाजिक अन्याय को मिटाइए तथा विषमताओं को दूर करके समता का वातावरण बनाइए-चरित्र विकास का चक्र स्वयमेव तेजी से घूमने लग जाएगा। ___ इस दृष्टि से सामाजिक न्याय के लिए भी साथ-साथ में लड़ाई लड़नी होगी तो पहले यह समझना जरूरी है कि सामाजिक न्याय का स्वरूप कैसा होना चाहिए? हर किसी को समाज के बड़े दायरों के अनुभव हुए हों या नहीं, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति अपने परिवार के न्यूनाधिक अनुभव अवश्य रखता होगा। यह परिवार पूरे विश्व का ही एक छोटा-सा घटक होता है अतः परिवार के अनुभव विश्व के विस्तृत पटल के वास्तविक वातावरण का आभास अवश्य दे सकते हैं। इस छोटे घटक के न्याय का चित्र ही समझ लें तो उसे बड़ा बना कर (एनलार्ज करके) देख सकते हैं। एक परिवार में आप जन्म लेते हैं, पोषित होकर बड़े होते हैं और वहां सबके साथ अच्छा सामंजस्य बना कर अपना पूरा जीवन भी सुख शान्ति से गुजार सकते हैं परिवार में आपके माता-पिता होते हैं, दीर्घायु हों तो दादा-दादी भी। साथ ही भाई-बहन भी होते हैं। आपका और उन सबके विवाह भी होते हैं जिनसे परिवार के सदस्यों की संख्या बढ़ती रहती हैं। परिवार के अनुभव लेने का चक्र आपकी समझ पकड़ने जितनी उम्र होते ही शुरू हो जाता है और उम्र बढ़ने के साथ अनुभवों में पकावट आती रहती 397
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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