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सुचरित्रम्
चरित्रहीनता के ऐसे जटिल चक्रव्यूह को भेदने के लिए और तोड़ने के लिए युवा शक्ति क्रियाशील बने-यह समय का आह्वान है। इस विजय के लिए इन अन्तर्रायुधों की सहायता ली जा सकती है
1.संकल्प : संकल्पबद्धता के महत्त्व का ऊपर प्रतिपादन किया जा चुका है। संकल्प की शक्ति अद्भुत होती है और इतनी अद्भुत कि वह असंभव को संभव करके दिखा दें, क्योंकि संकल्प सम्पूर्ण आत्म-शक्ति को एकत्रित करके संघर्ष हेतु सामर्थ्य से परिपूर्ण बना देता है। संकल्प का लक्ष्य इतना एकाग्र और केन्द्रित बन जाता है कि उसके सिवाय संकल्पकर्ता को अन्य कुछ भी दिखाई नहीं देता और इस तादात्म्य का सुपरिणाम होता है संकल्प का सफल होना। संकल्प सफल अर्थात् लक्ष्य प्राप्त और लक्ष्य प्राप्ति जीवन की अनमोल उपलब्धि होती है। चरित्र निर्माण तथा विकास का संकल्प यदि युवा शक्ति के साथ एकरूप, एकाग्र और केन्द्रस्थ बन जाए तो सफलता को कोई भी शक्ति बाधित नहीं बना सकती है। यह अजेय शस्त्र है।
2. संस्कार : कोई भी सद् संकल्प वही कर सकता है जो संस्कारित है तथा सद् संकल्प की पूर्ति भी सत्संस्कारों की क्षमता के साथ ही संभव होती है। संस्कार पारम्परिक होते हैं और परम्पराएं स्वस्थ रीति से निभाई जाती रहें तो संस्कारों का क्रम भी स्वस्थ बना रहता है। संस्कारिता व्यक्ति के जीवन से उद्भूत होकर अपनी शुद्धता एवं शुभता समाज के क्षेत्रों में खुले हाथ बांटती है। संस्कारिता का व्यापक फल समूहों को मिलता है और वस्तुतः संस्कारिता का निर्माण भी समूहों की विभिन्न प्रकार की गतिविधियों के आधार पर ही होता है। जो समाज संस्कारों की शुद्धता एवं शुभता के प्रति सावधान रहता है, वह चरित्रहीनता के चक्रव्यूह में मुश्किल से ही फंसता है और परिस्थितिवश फंस भी जाता है तो उसे उससे उबरने के लिए अधिक आयास की आवश्यकता नहीं होती है। संस्कार निर्माण, चरित्र निर्माण का ही मुख्य अंग माना जाता है।
3. सदाशय : सदाशय का अर्थ है-अच्छा भाव, जो प्रत्येक मनुष्य और प्राणी के लिए रहना चाहिए। सबका भला चाहना, किसी का भी बुरा न चाहना और हमेशा सबके भले के लिए ही बोलना तथा काम करना-यह सदाशय का सीधा-सा मतलब है। जो सदाशयी है, वह निष्कपट है, नि:स्वार्थी है और सरल स्वभाव वाला है। सरल है, वह सज्जन है और सज्जनता चरित्रशीलता का पहला गुण होता है। जिसका आशय सदैव सद्, शुद्ध और शुभ हो वह विभाव की विकृति से नहीं बंधता और सदा परोपकार के लिए मुक्त हृदय से कार्यशील रहता है।
यों संकल्प, संस्कार और सदाशय ऐसे ब्रह्मास्त्र हैं, जिनके आगे चरित्रहीनता का कैसा भी कसा हुआ चक्रव्यूह क्यों न हो, टूट कर चूर-चूर हो जाता है और जड़ मूल से उखड़ जाता है। चरित्र विकास के अभियान में ध्यान योग का सम्बल भी अपूर्व सिद्ध हो सकता है। सामान्य रूप से तन और मन दोनों को एकाग्र बना कर अवस्थित हो जाना तथा विशिष्ट विचारणा के साथ मन की गतिविधियों को नियंत्रित रखना ध्यान है। ऐसे ध्यान के लिए एकान्त स्थान, अनुकूल वातावरण तथा अन्य सुविधाएं आवश्यक होती हैं, परन्तु ध्यान की एक नई विधि भी विकसित हुई है कि चलते-फिरते, रेल-बस में चढ़ते-उतरते, ऑफिस में काम काज करते रहते हुए भी इस विधि से ध्यान की साधना
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