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सुचरित्रम्
त्यागना है, बल्कि उसे भी त्यागने की साधना कहा जाना चाहिये। वास्तव में वह साधक संसार को नहीं त्यागता, अपितु संसार के सुधार का उपक्रम लेकर ही अपनी साधना का श्रीगणेश करता है और उसे परिपक्व बनाता है। वह संकुचित क्षेत्र से हटकर विशाल क्षेत्र को थामता है, ताकि अपनी क्षमताओं का समुचित विकास करते हुए वह स्व-पर कल्याण को त्वरित गति से सम्पन्न कर सके। वर्णमाला 'अ' से शुरु होती है और अपनी यात्रा 'ज्ञ' पर समाप्त करती है, उसी प्रकार इस संसार में प्रत्येक विवेकवान मनुष्य ही नहीं, अन्य विकसित प्राणी भी साधना का 'अ' जरूर साधने की कोशिश करते हैं। कौन 'अ' से शुरु होकर किस वर्ण तक या 'ज्ञ' तक पहुँच पाता है-यह क्षमता विकास का प्रश्न है। यह क्षमता विकास भी केवल प्रयत्नरत उस प्राणी या मनुष्य का ही दायित्व नहीं है, बल्कि पूरे संसार तथा सम्बद्ध समाज का भी दायित्व है कि क्षमता विकास के लिये उपयुक्त वातावरण का निर्माण किया जाए। जब व्यक्तिगत एवं सामाजिक शक्तियाँ परस्पर जुड़ कर, तालमेल बिठा कर विकास की डगर पर चलती हैं तो कोई सन्देह नहीं कि संसार के वर्तमान विकृत स्वरूप को सुधार कर उसे सामान्य रूप से विकासशील क्षेत्र बनाया जा सकता है। संसार अर्थात् मनुष्य लोक नहीं, क्योंकि संसार में तो चारों गति के जीव हैं?
इस मान्यता में कोई विवाद नहीं है कि यह मनुष्य लोक और यह मानव जीवन ही ऐसा स्थान और अवसर है, जहाँ से उच्चतम उन्नति की साधना सम्पन्न की जा सकती है। यह संसार ही वास्तविक कर्मभूमि है।
अतः अन्यान्य विवादों से परे हट कर इन प्रश्नों पर आज के नजरिये से सोच-विचार किया जाना चाहिये कि इस ज्ञात संसार का संसरण अथवा प्रकृति का चक्र कैसा है, विभिन्न भू-खण्डों में मानवीय वातावरण का रूप-स्वरूप क्या है, इसमें श्रेष्ठता कितनी है तथा परिवर्तन की रूपरेखा कैसी बनाई जानी चाहिये, व्यक्ति और समाज के बीच कैसा तालमेल है और उसे विकास परक कैसे बनाया जा सकता है, समाज की वरीयता कैसे स्थापित की जाय तथा कैसे सभ्यता का मापदंड सुधारा जाय, संस्कृति को विकारमुक्त बनाकर किस रीति से उसे संसार के लिये हितावह बनाई जाय, परम्पराओं को संकुचित दायरों में से निकाल कर उन्हें व्यापक स्वरूप कैसे प्रदान किया जाय और कैसे मनुष्यता को विभाजित करने वाली भांति-भांति की दीवारों को ढहाकर उदार संबंधों को पनपाया जाय।
यह भी विचार किया जाना चाहिये कि मनुष्य इस संसार से क्या लेता है और संसार उससे क्या मांगता है अथवा उसे इस संसार को क्या देना चाहिये? संसार के मनुष्य पर कौन-कौन से ऋण हैं
और इस ऋण-मोचन के क्या-क्या उपाय हो सकते हैं? ऐसे ही कई प्रश्न हो सकते हैं, जिनके सुन्दर समाधान पर व्यक्ति-हित और विश्व-हित का सामंजस्य सध सकता है।
इन प्रश्नों का समाधान सरल नहीं है। वर्तमान परिस्थितियों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाए बिना न्याय की स्थापना नहीं हो सकती और न्याय के बिना सम्पूर्ण समाज में समता का सूत्रपात संभव नहीं। इस कठिन दायित्व का निर्वाह युवा वर्ग ही अपने कंधों पर ले सकता है, जो चरित्र निर्माण के क्षेत्र में
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