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________________ रहस्यों, संभावनाओं तथा प्रत्यक्ष उपलब्धियों से भरा है यह संसार ! आचरण का स्वरूप कल्पिका माना गया है। कल्पिका से संयम की आराधना होती है तो दर्पिका से संयम की विराधना (रागदोसाणुगया तु दप्पिया तु तदभावा । आराहणा उ कप्पे, विराहणा होति दप्पेणं- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष, 6-420) राग एवं द्वेष को ही अज्ञान का कारण मानते हुए ज्ञानवान् मनुष्य को राग, द्वेष रहित होकर कर्म करने की प्रेरणा दी जाती है, यह बताते कि राग, हुए द्वेष के आधार पर ही अज्ञानी तथा ज्ञानवान् पुरुष के लक्षणों में स्पष्टतः भेद किया जा सकता है। (सक्ताः कर्मण्य - विद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत । कुर्याद्विद्वांस्तथा-सक्ताश्रेकीर्षुर्लोकसंग्रहम् । - गीता, 3-25 ) । क्या संसार और सांसारिकता में भेद करना जरूरी नहीं ? : समझने की बात यह है कि राग और द्वेष सांसारिकता के बीज हैं और सांसारिकता का अर्थ हैसंसार में अज्ञानी मनुष्यों द्वारा फैलाई जाने वाली विकृतियों को विकृतियाँ न मानना तथा उनमें रमे रहना । जो विकृतियों को समझना या छोड़ना नहीं चाहता, वह सांसारिकता में लिप्त है - इसमें कोई सन्देह नहीं किन्तु मनुष्यों का एक जागृत वर्ग ऐसा भी देखा जाता है जो न सिर्फ विकृतियों को विकृतियाँ मानता है, बल्कि स्वयं उन विकृतियों को त्यागने की साधना करता है तथा पूरे संसार को उन्हें त्यागने की प्रेरणा भी देता है। ऐसे ही वर्ग में से ज्ञानी और विज्ञानी, बुद्ध और प्रबुद्ध तथा वीर और धीर पुरुष उभरते हैं जो अपने जीवन का उच्चतम विकास साध कर समग्र मानव जाति के लिए अनुकरणीय आदर्श के प्रतीक बन जाते हैं। यह विशिष्ट वर्ग भी इसी संसार में जन्म लेता, बड़ा होता और कर्म करके आदर्श बनता है। यह वर्ग कोई निश्चित वर्ग नहीं होता, बल्कि जो द्वेष को छोड़ते हैं, राग के स्थान पर विराग को अपनाते हैं, वे ही विकृतियों को मिटाने व घटाने का आन्दोलन चलाते हुए लोक-कल्याण के महद् कार्य में प्रवृत्त होते हैं। वे यह मानते हैं कि विकृतियों से विरत होकर संसार के शुद्धिकरण में जितने अधिक विशिष्ट जन प्रवृत्त होंगे इस संसार के सुधरने की आशा की जा सकती है। आखिर आदिमकाल से इसी संसार ने उपयोगी रहस्यों के उद्घाटन, ज्ञान-विज्ञान के विस्तार, संस्कृति एवं सभ्यता के विकास एवं विभिन्न क्षेत्रों में उन्नति के कदम भी तो बढ़ाए ही हैं। विकृतियों को दूर करने के असरकारक उपायों से अशुद्ध वातावरण को अधिकतम रूप से शुद्ध बनाने के प्रयास न्यूनाधिक मात्रा में ही सही सफल तो होते ही हैं । आशय यह कि यह संसार बुरा नहीं है, सांसारिकता बुरी है। यह भी माना जा सकता है कि राग, द्वेषमय सांसारिकता पूरे तौर पर कभी भी नहीं मिटाई जा सकेगी, किन्तु आज वातावरण अशुद्धता तथा शुद्धता का जो अनुपात है, उसे तो शुद्धता की दिशा में ठोस प्रयासों के माध्यम से बढ़ाया ही जा सकता है। सांसारिक वातावरण का शुद्धिकरण ही चरित्र निर्माण का मुख्य उद्देश्य माना जाना चाहिये । चरित्र निर्माण की दिशा ही एक मात्र दिशा है, जिसमें अग्रसर होकर संसार के वातावरण को अधिकाधिक मानवीय सद्गुणों से परिपूरित बनाया जा सकता है, ताकि संसारी जनों का जीवन अधिक सुखमय एवं विकासमय बन सके। साधक का संसार त्यागना जो कहा जाता है, वह वास्तव में सांसारिकता को 11
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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