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________________ सुचरित्रम् संसार होगा, जिसके साथ उसका व्यावहारिक लगाव है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए इस ज्ञात एवं दृष्ट संसार के शेष भू-भाग को 'जाना पर अनदेखा' यानी ज्ञात किन्तु अदृष्ट या परोक्ष संसार कहा जा सकता है। उसके साथ उसका मात्र भावनात्मक संबंध ही बनाया जा सकता है। ___ इसके बाद उस संसार का क्रम लिया जा सकता है जो अब तक वर्तमान परिस्थितियों में सम्बद्ध शोधों के उपरान्त भी अज्ञात भू-भाग है। इसी में से पृथ्वी ग्रह के सिवाय वैज्ञानिक अनुसंधानों के फलस्वरूप ज्ञात होते जाने वाले चन्द्र, मंगल, शुक्र आदि ग्रहों वाले संसार के भाग को अलग से समझा जा सकता है। यह भाग सामान्य जन के लिए सिर्फ कौतूहल का विषय होता है, जो उसके विश्वास के दायरे में नहीं आता। शास्त्रीय विवरणों के अनुसार संसार के भूगोल के संबंध में अलग-अलग धार्मिक मान्यताएं हैं और वर्णन भी अलग-अलग हैं। इनमें देवलोक, नरक, स्वर्ग, वैकुंठ, सिद्धस्थान, ब्रह्मलोक, गौ लोक, आदि विविध नामों के कई स्थल या आवास हैं। किन्तु, यहां एक प्रश्न सामने आता है कि क्या संसार मात्र भूगोल है? यह माप या क्षेत्रफल वाली बात तो ठीक है, लेकिन क्या यह भूगोल भी स्थिर है या परिवर्तनशील? क्या संसार इतिहास नहीं है? इस तथ्य को कैसे नकारा जा सकता है कि आज हमारे पास संचित और उपलब्ध सूत्र, शास्त्र, साहित्य, संस्कृति, सभ्यता आदि की निधियाँ इतिहास-जन्य ही तो है। फिर संसार को भावलोक ही क्यों न मानें, जहाँ सारी रचनाओं का आधार भावनाएँ हैं। भावना मन से स्फूर्त होती है और मन है इसीलिए मनुष्य है। संसार के मूल को प्रमुख रूप से मनुष्य के साथ जोड़ कर ही भली प्रकार जाना व माना जा सकता है। अधिकांश धर्म-सम्प्रदाय इस संसार को बुरा बताते हुए मनुष्य को उसे छोड़ने की सलाह देते हैं-इसमें संसार व मनुष्य का जुड़ाव ही मुख्य है। जुड़ाव नहीं हो तो अलगाव की बात का मतलब ही क्या? मनुष्य के संदर्भ में ही संसार के गुण-दोषों का विवेचन होता है, अतः संसार को छोड़ने का अर्थ यह लगाया जाना चाहिये कि यहाँ जो विविध प्रकार की विकृतियाँ फैली हुई रहती है, उनका त्याग किया जाए। मूलतः ये विकृतियाँ भावों से ही संबंधित होती है, क्योंकि भाव ही बाहर वचन और आचरण के रूप में प्रत्यक्षतः प्रकट होते हैं। इन्हीं के प्रयास से संसार का समुच्चय रूप से तथा संबंधित भू-भाग या क्षेत्र का वहाँ की परिस्थितियों के अनुरूप वातावरण बनता है। ___ भगवान् महावीर के दर्शन में इस की सूक्ष्म चर्चा मिलती है। राग एवं द्वेष के भावों को संसार का बीज कहा गया है, कारण मूल में ये दोनों भाव ही विविध विकृतियों को जन्म देकर संसार में विषमताएं उत्पन्न करते हैं। इन विषमताओं के कर्ता एवं वाहक मनुष्य आदि जीव होते हैं। अज्ञानी जन राग, द्वेष का आश्रय लेकर बहुत कुकर्म-पाप करते हैं (राग दोसास्सिया बाला, पावं कुव्वंति ते बहुं-सूत्र कृतांग, 1-8-8)। यह भी बताया गया है कि राग, द्वेष पूर्वक किया जाने वाला निषिद्ध आचरण अपने स्वरूप की दृष्टि से दर्पिका है तो राग, द्वेष रहित (अपवाद को छोड़कर) होने वाले
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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