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सुचरित्रम् .
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स्थापित किया । एक लम्बे स्वतंत्रता संघर्ष के पश्चात् अंग्रेजों के शासन से 1947 में देश को मुक्ति मिली। विदेशियों के लम्बे शासनकाल में इतनी चारित्रिक दुर्बलताओं से देश के सभी वर्ग ग्रस्त रहे कि स्वतंत्रता प्राप्ति की आधी शताब्दी के बाद भी विश्वासपूर्वक नहीं माना जा सकता है कि देश ने अब भी उन दुर्बलताओं पर विजय पा ली है। स्वतंत्रता संघर्ष का समय रचनात्मकता और नैतिकता की शक्ति वृद्धि का अवश्य रहा और यदि उस समय की भावात्मकता सहेजी गई होती तो चारित्रिक उन्नति का युग भी तभी से प्रारंभ होकर आज चरित्र विकास की सुदृढ़ स्थिति बन गई होती, किन्तु धन और सत्ता की जैसी बाद में आपाधापी मची उसने चरित्र के मोड़ को फिर से पीछे की ओर घुमा दिया। आज इसी कारण प्रतिकृति की छाया अब तक भी घिरी हुई है, जिससे न केवल राष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि समाज और व्यक्ति के स्तर पर भी चरित्र का निर्माण धुंधला-सा पड़ा हुआ है।
काल क्रम के अनुसार चक्र एक ही दशा में सदा फंसा हुआ नहीं रह सकता है तथा प्रतिकृति के . बाद नवोत्साह अवश्य जागता है और सभी स्तरों पर अनुकूल सुधार के लक्षण प्रकट होते हैं एवं सत्कृति का सवेरा उगता है। किन्तु मानव प्रयत्नों की अपेक्षा इस कारण रहती है और रहनी चाहिए कि अंधकार काल की समाप्ति जल्दी हो सके-रात जल्दी बीते व सवेरा जल्दी आवे ।
चरित्रहीनता का तमस मिटे और परिवर्तन के प्रकाश में सत्कृति उभरे :
पतन के बाद परिवर्तन की अपेक्षा होती है कि व्यक्ति और समाज की गति अंधकार से प्रकाश की ओर अग्रसर हो, चरित्रहीनता का तमस पूरी तरह मिटे और परिवर्तन के प्रकाश में सत्कृति उभरे। सत्कृति का अर्थ है काल प्रवाह एवं निहित स्वार्थियों के कुकर्मों के क्रम में कृति का जो स्वरूप विकृत हुआ तथा विश्व के स्तर से लेकर व्यक्ति के स्तर तक में चरित्र का जो ह्रास हुआ उसका शुद्धिकरण किया जाए तथा उस स्वरूप में शुभता की पुनर्प्रतिष्ठा हो । प्रतिकृति विकृत स्वरूप की प्रतीक बनती है तो सत्कृति पुनः कृति की यथावत् स्वरूप - सृष्टि कर देती है । जन-जन के जीवन के सद्गुणों का विकास हो एवं मानवीय मूल्य जीवन के निर्देशक तत्त्व बनें, इसके लिए परिवर्तन अनिवार्य है। अशुद्धता से शुद्धता का परिवर्तन, अशुभता से शुभता का परिवर्तन और चरित्रहीनता से चरित्र सम्पन्नता का परिवर्तन । यह परिवर्तन धर्म को विज्ञान से जोड़ेगा तथा व्यक्ति को विश्व से ताकि नये प्रकाश युग का अवतरण हो सके।
यह चर्चित किया जा चुका है कि परिवर्तन का अर्थ उन परिवर्तनों से लिया जाना चाहिए जो समय, स्थिति एवं नई पीढ़ी की महत्त्वाकांक्षाओं के अनुरूप समुचित सिद्ध होते हो। ऐसे परिवर्तनों को सरलतापूर्वक लागू कर देने से सामाजिक प्रवाह में गत्यात्मकता एवं निरन्तरता के तत्त्व अक्षुण रह सकते हैं। किन्तु यदि इसके विपरीत स्थिति बनी रहती है और प्रतिकृति का कुप्रभाव बना रहता है तो दीर्घकाल से संरक्षित सभ्यता और संस्कृति ही अधिक क्षरित नहीं होगी, बल्कि सामाजिकता
मूल धरातल भी छिन्न विछिन्न होता रहेगा । अतः परिवर्तन का बिन्दु गहन रूप से विचारणीय ही नहीं, अपितु विवेक एवं तत्परता से आचरणीय भी है। इस दिशा में आवश्यक कर्त्तव्य यह है कि गतिशील समाज में निरन्तर उभरते रहने वाले परिवर्तन के लक्षणों की पहचान प्रारंभ में ही कर ली