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सामाजिक प्रवाह की गतिशीलता व निरन्तरता हेतु हो बदलाव
शाश्वत रूप, उनकी स्थिर गुणवत्ता तथा मूल्यवत्ता और वह बदलनी भी नहीं चाहिए, बल्कि परिवर्तनों की आंधी में यह गुणवत्ता और मूल्यवत्ता नष्ट न हो जाए-उसकी सतर्कता नितान्त आवश्यक होती है। काल क्रम में ही नया पुराना होता है और पुराने को बदलने का उपक्रम किया जाता है, बल्कि समाज की सहमति से नवीनता पुनः स्थापित की जाती है। काल क्रम के साथ यह क्रम भी निरन्तर चलता रहता है। साम्यवादी विचारधारा के प्रवर्तक कार्ल मार्क्स ने इस क्रम को साइकिल (चक्र) का नाम दिया है जिसे 'मार्क्सिवन साइकिल' कहा जाता है। इसके तीन भाग हैं1. वाद (थीसिस), 2. प्रतिवाद (एन्टीथीसिस) तथा 3. समन्वय-वाद (सिंथिसिस) और मार्क्स के अनुसार परिवर्तन का यह क्रम सतत रूप से चलता रहता है।
यह सत्य भी है कि जब कोई भी वैचारिकता या व्यवस्था सर्वहितैषी चिन्तकों के द्वारा प्रस्फुटित, स्थापित एवं प्रचलित होती है, तब वह अपने विशुद्धतम स्वरूप में होती है। इसी कारण उसे सामाजिक स्वीकृति भी मिलती है। किन्तु काल प्रवाह में उसके प्रचलन तथा व्यवहार में पहले शिथिलता एवं मन्दता तथा बाद में स्वार्थपरता एवं वैकारिकता के दोष उसमें समाने लगते हैं। निहितस्वार्थी वर्ग तब वैसी विकृत व्यवस्था को जारी रखना चाहते हैं ताकि अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए आम लोगों को अपने शोषण, दमन, उत्पीड़न आदि का उपकरण बनाए रखा जा सके। सहन शक्ति की सीमाएं जब टूटने लगती हैं, तब सामान्य जन का विक्षोभ उस विकृति के विरुद्ध गहराता जाता है और संतोषजनक परिणाम न मिलने पर वह विक्षोभ विद्रोह का रूप भी ले सकता है। यदि विद्रोह की स्थिति न आने दी जाए और समय पर चांदी के कड़ों की पायजेबें बनवा दी जाए तो अनावश्यक हानि से बचा जा सकता है। शुद्ध कृति प्रारंभ में रहती है, विकृति में वह प्रतिकृति बन जाती है और तब सत्कृति का नया युग शुरू होता है। - ऐतिहासिक घटनाओं का सिंहावलोकन करें तो ज्ञात होगा कि भगवान् ऋषभदेव द्वारा असि, मसि, कृषि के साधनों के माध्यम से जिस नये कर्मयुग का आरंभ हुआ था, वह महावीर के काल के काफी बाद तक भी निरन्तर उन्नति के साथ चला। यहां तक कि मौर्य वंश के राजाओं के शासन काल को इतिहास का स्वर्ण युग कहा गया। तब सभ्यता और संस्कृति समुन्नत बनी तो धर्म जीवन के साथ जुड़ा रहा और जीवन को भावना जगत् में नैतिकता एवं श्रेष्ठता का पर्याय बनाए रखा। चारित्रिक गुणों का सर्वत्र विस्तार था और विकसित मानव चरित्र ने सभी क्षेत्रों में सफलता के नये आयाम साधे। रचनात्मकता ने दृष्टि एवं कर्म को ऐसा सृजनशील बनाया था कि इस काल को कृति का स्वर्णकाल कहा जा सकता है। __ तदनन्तर इतिहास में नये-नये मोड़ आते रहे और युग कृति से प्रतिकृति में रूपान्तरित होने लगा। प्रतिकृति का यह अन्धकार काल था जो बहुत लम्बा चला और सच तो यह है कि इस काल ने शायद अभी तक भी देशं का पीछा नहीं छोड़ा है। ईसा की पन्द्रहवीं सदी से इस देश पर विदेशियों के आक्रमण शुरू हुए। इस दौरान भारतीय चरित्र की ऐसी गिरावट दिखाई दी कि सत्ता की आपसी लड़ाइयों ने देश की एकता और शक्ति नष्ट कर दी। पहले मुसलमानों के कई वंशों ने देश पर शासन किया तो उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजों ने अन्य विदेशियों तथा देशी राजाओं को परास्त कर अपना शासन
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