SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुचरित्रम् कूटनीति शुरू होने से पहले यहां पर धार्मिक क्रियाकांड इतने मुखर नहीं थे। सब अपनी-अपनी पसन्द की उपासना चुपचाप करते थे और बाहर सभी सम्प्रदाय वालों के साथ सहज स्नेह से रहते और अपना कामकाज शान्तिपूर्वक करते थे। कुछ जहर जिन्ना ने बिखेरा लेकिन उसको नस-नस में इंजेक्ट किया देश के अपने ही शासकों ने। वोट की साम्प्रदायिक राजनीति चलाई तब प्रत्येक सम्प्रदाय के कर्मकांडी राजनीतिक लाभ उठाने की गरज से सारी सड़कों पर फैल गए और अपने क्रियाकांडों यानी अपनी 'ब्रांड' का सार्वजनिक प्रदर्शन करने लगे इस मतलब से कि वे अपनी सम्प्रदाय को ज्यादा असरदार बता सकें। फिर तो आडम्बरों की एक दूसरे से होड़ ही शुरू हो गई और पाखंड यानी कि कट्टरता रचा-बसा दी गई सबके मन में। राजनीति में साम्प्रदायिक मांगें उठने लगी और दबाव की सौदेबाजियां शुरू हुई। ऐसे में भला धर्म कहां टिकता? वह काफूर हो गया, कपूर बन गया। धर्म हवा में उड़ता रहेगा तो कैसा बनेगा लोगों का चरित्र और वही आज सबको दिखाई दे रहा है-सबको दुःख पहुंचा रहा है। कटुता, आतंकवाद व हिंसा के दरवाजों के पीछे के नजारे ऐसे होते हैं, जिनकी एकमात्र कारक होती है-कट्टरता। धर्म अलोकप्रिय होता है धर्म के नाम पर की जाने वाली कट्टरता की कार्यवाहियों से धर्म के मौलिक स्वरूप पर पर्याप्त चर्चा की जा चुकी है और बताया जा चुका है कि धर्म नाम है शुद्ध एवं शुभ कर्तव्यों का और कर्त्तव्य नाम है उन कार्यों का, जो सबके लिए सबके हित में करने लायक हों। ये करने लायक काम सदा एक से नहीं रहते, परिस्थितियों के बदलने से बदलते भी रहते हैं। इन करने लायक कामों का निर्धारण भी महापुरुष, धर्म प्रवर्तक या समाज नायक करते हैं, किन्तु इन कामों के कुछ स्थाई भाव भी होते हैं। इन स्थाई भावों का शाश्वत दृष्टि से अनुसरण करना होता है, जैसे अहिंसा यानी आपसी बातें प्रेम और शान्ति से निपटें चाहे मामले कैसे भी क्यों न हो? सत्य यानी परस्पर के व्यवहार में न झूठ रहे, न कपट, जो जैसा है वही कहा जाए और वही सामने आवे। क्षमा यानी बुरा लगने पर भी क्रोध का प्रयोग न हो, विवेक की खिड़की खुली रहे । त्याग यानी अपने स्वार्थ उस सीमा तक ही रहें कि परहित पर आघात न करें, बल्कि परहित के लिए स्वहित भी छोड़ दे। अपरिग्रह यानी केवल आवश्यकता की पूर्ति हो, धन एवं सत्ता का न संग्रह हो और न उन पर अपना एकाधिकार जमाया जाए। ऐसे अनेकानेक सद्गुणों का समूह ही धर्म है और यही चरित्र भी, जो सही कर्तव्यों का निर्धारण भी करता है तथा उनके पालन की प्रेरणा भी जगाता है। __ ऐसा धर्म किसी सीमा में बंधा नहीं होता-सूर्य के समान सबको प्रकाश, वायु के समान सबको संस्पर्श और जल के समान सबको समान रूप से जीवन प्रदान करता है। इस धर्म को जो सीमा में बांधने की कुचेष्टा करता है, सबसे बड़ा अधर्मी वही है। वही कट्टरता की शुरूआत करता है और उस व्यापक धर्म को अपने बंद घेरे में सम्पर्कहीन बना कर पाप का प्रचलन करता है। धर्म का इससे बढ़ कर अन्य कौनसा दुरूपयोग हो सकता है? सोचे कि सच्चा धर्म किसके लाभ के लिए होता है? आप अहिंसक बनते हैं तो खुद को ही नहीं बचाते, बल्कि सबको बचाने में खुद को पहले लगाते हैं। 372
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy