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बढ़ते आतंकवाद व हिंसा के लिए धर्मान्धता जिम्मेदार
चलता रहा है और चल रहा है जिसे देख-सुन कर क्या किसी भी मानवता समर्थक के मन में धर्मप्रेम बचा हुआ रह सकता है ?
साम्प्रदायिक कट्टरता, आतंकवाद एवं हिंसा के दरवाजों के पीछे के नजारें :
आज कोई किसी से पूछता है- तुम्हारा धर्म क्या है? तो वह बिना किसी सोच या झिझक के तुरन्त उत्तर दे देता है-मैं हिन्दू हूँ, मुसलमान हूँ, जैन हूँ, सिख हूँ या और कुछ । किन्तु यह उत्तर शायद ही कोई देता हो कि वह किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय को नहीं मानता- केवल धर्म को मानता है। उस धर्म को, जो बिना लिंग, भाषा, वर्ग, राष्ट्रीयता या अन्य किसी भेद के संसार में सबको मनुष्यों को ही नहीं, पशु-पक्षियों एवं जीव-जन्तुओं तक को प्रेम करना सिखाता है और सबके हित में ही स्वयं का हित होगा - यह सत्य समझाता है। किन्तु क्या ऐसी कल्पना भी उठती है किसी के मन में? नहीं उठती तो क्यों नहीं उठती ? सच जानते हुए भी बेहिचक झूठ क्यों कहा जाता है ? अधिकांश लोगों के मन में ऐसा स्थायी बिगाड़ क्यों पैदा हो गया है? कोई मत, पंथ या सम्प्रदाय ऐसा मुश्किल से ही होगा जो मानव धर्म को अपना सिद्धान्त न बताता हो, लेकिन ऐसा भी कोई मत, पंथ या सम्प्रदाय मुश्किल से ही मिलेगा, जो अपने नाम की कट्टरता की सीख न देता हो ऐसा विपर्यास कैसे ? जान-बूझकर भी लोग इस असली-नकली को समझते क्यों नहीं हैं? चाहे जनगणना की पूछताछ हो या अदालत का बयान कि धर्म पूछने पर धर्म नहीं, अपनी सम्प्रदाय का नाम बताया जाता है और अपने आपको धर्म निरपेक्ष बताने वाला शासन भी इस उत्तर को रिकार्ड कर लेता है। चारों ओर यह व्यामूढ़ता क्यों ?
यह केवल आज की ही बात नहीं है। सदियों से चली या चलाई जा रही बात है उन धर्म के ठेकेदारों द्वारा, जो धर्म के प्रभाव से जन-जीवन का उत्थान करना नहीं चाहते, बल्कि धर्म को बंद घेरों में बांध कर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते रहे हैं। रक्षक ही जब धर्म भावनाओं का भक्षण करते चले आ रहे हों, तब कैसे सुधरे और ऊपर उठे सामान्य जन का जीवन ? धर्म-प्रवर्तकों ने नहीं, उनके धर्म को अपने घेरों में बंद कर देने वाले ठेकेदारों ने ही जनमानस को तंग, रूढ़िवादी और विवेकहीन बनाया है। अपने हीन स्वार्थों की सतत पूर्ति के लिए उपदेश देते हैं अहिंसा, क्षमा, करुणा, भ्रातृत्व, त्याग, संयम आदि मानवीय गुणों का हाथी के दिखाऊ दांतों की तरह, लेकिन भीतर में सिखाते हैं। ईर्ष्या, होड़, टकराव और मुख्य रूप से कट्टरता - जिससे फैलती है कटुता और विद्वेष की वृत्तियाँ, आतंकवादी घृणा और तरह-तरह की हिंसक प्रवृत्तियां । यों केवल कट्टरता को पकड़ कर शुद्ध एवं • शुभ धर्म भी घोर अधर्म का रूप ले लेता है-अमानवीय और आक्रामक । इसी परिमाण में चरित्र भी पतित होता रहता है, क्योंकि शुद्ध और शुभ वृत्तियाँ एवं प्रवृत्तियाँ अशुद्धता तथा अशुभता के दलदल में गहरे धंसती चली जाती हैं।
क्यों हुआ यह? प्रत्येक मत, पंथ या सम्प्रदाय के दो पक्ष होते हैं- 1. सिद्धान्त पक्ष तथा 2. उसको आचरण से पुष्ट करने वाला क्रियाकांड पक्ष । इस दूसरे पक्ष में कठिनाइयां होने से क्रिया तो कम पनपी, लेकिन कांड आडम्बरों और दिखावों में फूल कर पूरा पाखंड हो गया। इसका सचोट उदाहरण भारत की धर्म भूमि पर ही देखा जा सकता है। स्वतंत्रता प्राप्ति और मोहम्मद अली जिन्ना की
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