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बढ़ते आतंकवाद व हिंसा के लिए धर्मान्धता जिम्मेदार
तभी तो अहिंसा का वास्तविक पालन होता है। सत्यनिष्ठ होते हैं तो अपने ही कर्म को शुद्ध नहीं बनाते-सबके कर्मों में शुद्धि लाने की अलख भी जगाते हैं। अस्तेय व्रत लेकर आप अपने व्यवसाय से सम्बद्ध सभी लोगों को आर्थिक आदि शोषण से रहित बनाते हैं। ब्रह्मचारी बने तो स्वयं को ही निर्मलता की ओर नहीं बढ़ाते, बल्कि अपने निर्मल आवरण में सबको लपेट लेने का उत्तम कार्य भी करते हैं। एक नहीं, अनेक प्रकार से धर्म-सिद्धान्तों के पालन का अधिक लाभ दूसरों को मिलता है
और मिलना भी चाहिए-यही तो धर्म का सच्चा उद्देश्य है। तो हकीकत यह है कि धर्म-कर्म करता तो व्यक्ति है, किन्तु अधिकांश में उससे लाभान्वित होता है समाज, राष्ट्र और पूरा संसार, क्योंकि धर्म के आचरण से सर्वत्र शान्ति स्थापित होती है। यह व्यापक लाभ ही धर्म का हार्द है-केन्द्र है। धर्म का यही स्वरूप सच्चा मानव धर्म कहलाता है। यही व्यक्ति का सारभूत मूल्य है तो संसार का गौरव भी। यही धर्म व्यक्ति को सारे संसार के साथ आत्मीयता से जोड़ता है। . परन्तु आज तो धर्म के नाम से सामान्य जन के मन-मानस में जो तस्वीर उभरती है वह संगठित सम्प्रदायवाद, आक्रामक पूंजीवाद तथा मारक कट्टरतावाद के बदरंगों से बदली-बिगड़ी होती है। इस बदरंग तस्वीर के लिए जिम्मेदार है तो सिर्फ कट्टरतावाद। कट्टरपंथी ही भांति-भांति की विकृतियां पूरे क्षेत्र में फैला रहे हैं और अपनी विषैली कार्यवाहियों से धर्म के सत्य स्वरूप को कलंकित कर रहे हैं और वह भी धर्म के नाम पर। आज दुनिया के अधिकतर देश या तो ईसाई धर्म को मानने वाले हैं या .... इस्लाम को मानने वाले, परन्तु मानव धर्म का झंडा फहराने वाले विरले ही मिलेंगे। इसी कट्टरतावाद ने आतंकवाद का बाना पहन लिया है इसलिए चारों ओर क्रूर नृशंसता का फैलाव तथा निर्दोषों का रक्तपात हो रहा है। यों प्रत्येक धर्म के नित्य-व्यवहार में भी धर्म शब्द से 'पारलौकिक सुख का मार्ग' अर्थ पर ही ज्यादा जोर दिया जाता है। यही अर्थ धर्म पालन कर्ता का नाता इस संसार से तोड़ता है। ____धर्म के नाम पर की जाने वाली कट्टरता की घृणित कार्यवाहियां ही सच्चे धर्म को अलोकप्रिय बना रही है, क्योंकि सामान्य जन धर्म और धर्म के नाम पर बताये जाने वाले तथाकथित धर्म का अन्तर आंकने में असमर्थ होता है। जो धर्म नायकों ने बताया उसे ही वह धर्म मानता है तथा यथाशक्ति उसी का अनुसरण करने की वह चेष्टा करता है। तभी तो जब ईसाई धर्मगुरु धन लेकर स्वर्ग के पासपोर्ट बांटने लगे तो अनेक भोले भक्तों ने दिल खोल कर उनका क्रय किया। धर्म-धारण से चरित्रशीलता पनपती है और धर्म के नाम पर सिर्फ चरित्रहीनता__ सच्चा मानव धर्म चरित्र का पोषक एवं संवर्धक होता है, अतः धर्म को जीवन में धारण करने से चरित्रशीलता पनपती है, सर्वत्र अपना सुप्रभाव दिखाती है तथा विविधताओं को जोड़ कर उन्हें एकता के सूत्र में आबद्ध करती है। देखिए कि शरीर के सभी अंग-उपांग आकार, प्रकार और कार्य में एक दूसरे से सर्वथा भिन्न होते हैं किन्तु शरीर रूपी संगठन में जुड़ कर कितने एकीकृत ढंग से कार्य करते हैं कि वही खून शरीर के प्रत्येक भाग में संचारित होता है और वही दिल धड़कता रह कर पूरे संगठन की दशा-विदशा का परिचय देता है। इनसे ऊपर शरीर की सारी गतिविधियों को निर्देशित करता और जांचता-परखता है एक अकेला मस्तिष्क। शरीर के इस स्वरूप से मानव शिक्षा क्यों नहीं लेता कि पृथक्-पृथक् गति-मति के होने के उपरान्त भी सारे मानव एकत्रित होकर एक मानव जाति के
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