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बढ़ते आतंकवाद व हिंसा के लिए धर्मान्यता जिम्मेदार
कारण यह है कि वे धर्मनायक भी ऐसा नहीं चाहते-वे अपने-अपने अनुयायियों को अपने नेतृत्व में जकड़े रखना चाहते हैं। समझ जगाने से जकड़ना मुमकिन नहीं होता-उसके लिए सही समझ को सुलानी होती है, अप्रभावी बनानी होती है और अंधी कट्टरता जगानी होती है धर्म के नाम पर कि धर्म खतरे में है, सम्प्रदाय खतरे में है इसलिए सम्प्रदाय की रक्षा में, उसके असर को बढ़ाते रहने में जुटे रहो-चाहे इसके लिए आक्रामक बनना पड़े या हिंसक प्रवृत्ति चलानी पड़े। वहां पर सम्प्रदाय की प्रतिष्ठा का प्रश्न खड़ा कर दिया जाता है और आंख मींच कर जो प्रतिष्ठा के लिए नहीं लड़ता उसे सम्प्रदाय का सच्चा भक्त कैसे कहा जाए? इस प्रकार साम्प्रदायिकता का जो चक्र चलता है, वह चरित्र की यथार्थता को काट देता है और निष्ठा की नई परिभाषाएं गढ़ता है।
प्राचीन से अर्वाचीन इतिहास पर यदि एक सरसरी नजर दौड़ाई जाए तो नामधारी धर्मों की अब तक कि सारी गतिविधियों का सार यह निकलता है कि धर्मों ने मानव को तोड़ा मरोड़ा है, बांटा है लेकिन जोड़ा बहुत कम है और अपनी कट्टरता में मानवीय मूल्यों का भी अधिकतर नाश ही किया है। क्यों बनी है ऐसी धारणा? इतिहास के इस पहलू पर विश्लेषणात्मक विचार-विमर्श से ही साम्प्रदायिकता के विषैले प्रभाव का आकलन किया जा सकेगा और समझा जा सकेगा कि किस रीति से सभी धर्मों में अंकित मानव-धर्म के सिद्धान्तों को प्रभावशाली बना कर आचरण में उतारने का एक प्रबल वातावरण बनाया जाए। धर्म के नाम पर क्यों खुलते हैं हिंसा के दरवाजें और कौन खोलता हैं उन्हें:
किसी भी नये धर्म का जब प्रवर्तन होता है तो वह प्रभावशाली होता है। प्रवर्तक की सर्वांगीण महानता सामान्य जन को प्रभावित करती है और वह उसके उपदेशों में अपने उत्थान का मार्ग देखता है। प्रवर्तन समस्त वातावरण को नए उत्साह से भर देता है और अनुयायियों के समुदाय नए धर्म में सम्मिलित होते जाते हैं। उस धर्म के कथित सिद्धान्त भी प्रेरणाप्रद होते हैं। उस समय धर्म ही धर्म का प्रचार होता है, चरित्र अपने विकास के नये आयाम देखता है और नीति जीवन में एक नई ऊर्जा भर देती है। ___ वस्तुतः समस्याएं तभी पैदा होती हैं जब धर्म के लिए प्रवृत्तियां नहीं होती, बल्कि प्रवृत्तियां धर्म के नाम पर होने लगती है। असल में प्रवर्तन सर्वहित, शुद्धता और शुभता को उभारता है, किन्तु वही सब कुछ उसी धर्म के प्रचलन में बदल जाता है-तब सर्वहित मुख्य नहीं रहता, सम्प्रदाय के उचित या अनुचित स्वार्थ बड़े हो जाते हैं, शुद्धता व शुभता उपेक्षित हो जाती है। उस धर्म का उसके प्रचलन में मानवीय स्वरूप संकुचित हो जाता है। सम्प्रदाय के छोटे दायरे में कैद हो जाता है। तब वह स्वरूप मानवीय नहीं रहता, सिर्फ साम्प्रदायिक हो जाता है। तब उस धर्म के अनुयायी या तो पूर्व स्वरूप की पुनर्प्रतिष्ठा का आग्रह करते हैं अथवा अपने नए नायकों के सुर में सुर मिला कर उनके आदेशों की कठपुतलियां बन जाते हैं।
प्रचलन में समस्याएं क्यों पैदा होती है? प्रवर्तक सा उत्साह और सामर्थ्य उसके उत्तराधिकारियों में नहीं रहता। दूसरे, जो पूंजी उन्हें अपने पिता-पितामह से प्राप्त हुई है सम्प्रदायगठन के रूप में-वे उसकी ही रखवाली में लग जाते हैं। तीसरे, एक ही धर्म के प्रचलन में अनेक उत्तराधिकारियों के
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