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________________ सुचरित्रम् मात्र चाहिए। वे धर्म की ओट में अपने स्वार्थों का शिकार खेलना चाहते हैं। इसी क्रम में साम्प्रदायिकता उभारी जाती है, उत्तेजना फैलाई जाती है, विभिन्न सम्प्रदायों एवं नायकों के बीच अहं के संघर्ष पैदा किए जाते हैं तथा जीवन के विकास को ठेके पर चढ़ा दिया जाता है। पहले प्रकार की शुद्ध धार्मिक मनोदशा से यह साम्प्रदायिक मनोदशा एकदम भिन्न होती है किन्तु वातावरण इस कुटिलता से रचा जाता है कि सामान्य जन अपने भोलेपन में इस भिन्नता को भली प्रकार समझ नहीं पाता है और धर्म के नाम पर मतलब पूरे करने वालों के साथ लग जाता है, वह भी अंध श्रद्धा का आवरण ओढ़ कर। इस दशा और दिशा को भली प्रकार समझना एवं समझाना चाहिए ताकि सच्चे धर्म की स्वीकृति व्यापक बने और जीवन को सार्थक बनाने की प्रवृत्ति सघन होती हुई एक नई चारित्रिक क्रान्ति को जन्म दे। असल में धर्म के दो छोर हैं-मानव धर्म एवं साम्प्रदायिक कट्टरता : ___ जीवन के शुद्ध एवं शुभ स्वभाव को प्राप्त करने के मार्ग का नाम धर्म है। इसे चरित्र की संज्ञा भी दी जा सकती है। स्वभाव यानी अपने मूलभाव को प्राप्त कर लेना सुगम नहीं होता, क्योंकि विभिन्न प्रकार की विषमताओं एवं विकृतियों के अनेक आवरण इस स्वभाव पर चढ़े हुए हैं, जिन्होंने स्वभाव को विभाव के रूप में पलट दिया है। इन आवरणों को पूरी तरह से हटाना और शुद्ध स्वभाव को प्रकट कर लेना यही जीवन का मूल अर्थ है। इस प्रक्रिया में एक नहीं, अनेक जीवन जब जुटते हैं तो समूह प्रभावित होते हैं और सामूहिक जीवन में श्रेष्ठ चरित्रशीलता, सौम्यता और साम्यता प्रवेश करती है। ये गुण ही विकसित होते हुए विश्वबंधुत्व तक पहुंचाते हैं। तो धर्म का एक छोर यह है, जो है मानव-धर्म। दूसरा छोर हकीकत में धर्म का नहीं है लेकिन धर्म से ही उपजाया गया है-इस कारण इसको भी धर्म का ही छोर कहना होगा, यह साम्प्रदायिकता का छोर है। यह समझने की बात है कि साम्प्रदायिकता क्यों उपजती है अथवा उपजाई जाती है? सम्प्रदाएं अलग-अलग मार्गों से सत्य की ओर बढ़ाने वाली संस्थाएं कही जा सकती हैं बशर्ते कि वे अनेकान्तवादी दृष्टिकोण की समर्थक बनी रहें यानी सब सबके विचारों के प्रति सम्मान रखें, मिल बैठ कर सत्य समन्वय की चेष्टा करें और मतैक्य के साथ सामान्य जन को विवादहीन मार्ग सुझावें। किन्तु सम्प्रदाएं अलग-अलग मतों की वाहक बन कर जब हठाग्रही हो जाती हैं तो अपनी ही सम्प्रदाय को श्रेष्ठ मानना तथा अन्य सभी सम्प्रदायों को हीन समझना-ऐसी आग्रही हठ अनुयायियों में पैदा कर दी जाती है यानी कि आंखें बंद करा कर कट्टरता का पक्का पाठ पढ़ा दिया जाता है, तब जो आक्रामक वृत्ति पैदा होती है उसे साम्प्रदायिकता का नाम दिया जाता है। साम्प्रदायिक होना यानी कट्टर बन जाना और कट्टर बन जाने का मतलब हो जाता है कि अपना कहा जाने वाला सब सही और बाकी का सब गलत-कुछ भी इधर-उधर सोचने की जरूरत नहीं और जो अपनी साम्प्रदायिकता पर चोट करे, उसको छोड़ना नहीं-सार्वजनिक रूप से उसे आहत करना ही। ऐसी ही साम्प्रदायिकता कट्टरता घातों-प्रतिघातों में चलती है, कटुता से पारस्परिक संबंधों को तोड़ती है और भांति-भांति की हिंसा के दरवाजों को खोलती है। एक अच्छा पहलू यह है कि जितने भी नामधारी धर्म हैं, वे सभी अपने-ग्रंथों व उपदेशों में मानवीय मूल्यों को प्रधानता देते हैं, किन्तु आज की विडम्बना यह है कि वह सब कुछ जबानी जमाखर्च तक ही सीमित हो गया है। उनके आचरण पर जोर नहीं दिया जाता है और इसका मुख्य 368
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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