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________________ बढ़ते आतंकवाद व हिंसा के लिए धर्मान्धता जिम्मेदार . काबिल भी न रहे। तो जो केवल जिया जाता है, उसे केवल जड़तापूर्ण जीवन ही कहा जा सकता है। सार्थक जीवन वह जो स्वयं चले-स्वस्थ एवं सुदृढ़ गति से चले, बल्कि अपने चलने के साथ अन्य दुर्बल जीवनों में भी प्रगति का बल भरता हुआ चले।...जीवन की परिभाषा के अन्तर्गत निर्णायक शब्द अपेक्षा से विशेष्य के रूप में देखा जा सकता है। इसकी व्याख्या यदि हमारी समझ में आ गई तो हम शब्द के साथ लगने वाले सम्यक् विशेषण को भी अच्छी तरह समझ सकते हैं। वह निर्णायक शक्ति प्रत्येक जीवन में विद्यमान है और आत्मिक जागृति के परिमाण में वह शक्ति भी विकसित होती रहती है। निश्चय ही मानव जीवन में निर्णायक शक्ति अधिकतर मात्रा में हो सकती है बशर्ते कि उस शक्ति को जगा कर उसे सही दिशा में कार्यरत बनाई जाए।...इस निर्णायक शक्ति के विकास का पहले प्रश्न है और बाद में उसके सम्यक् विकास की समस्या सामने आती है। जब अन्तर में विकास जागता है तो जीवनी शक्ति का भी उत्थान होता है। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीवन तक तथा वहां से मानव जीवन की उपलब्धि इसी क्रमिक विकास का परिणाम होता है। मानव जीवन में यह निर्णायक शक्ति अधिक पुष्ट बने, अधिक सम्यक् बने-इस ओर मनुष्य के ज्ञान, दर्शन और आचरण की गति अग्रसर बननी चाहिए।...जीवन क्या है? उसे क्या होना चाहिए? इन दोनों स्थितियों को अन्तर की जितनी गहराई से देखने एवं समझने का प्रयत्न किया जाएगा, उतनी ही यह निर्णायक बुद्धि प्रबुद्ध बनती जाएगी।...समता का अर्थ है कि पहले समतामय दृष्टि बने तो यही दृष्टि सौम्यतापूर्वक कृति में उतरेगी। इस तरह समता समानता की वाहक बन सकती है।...'जीवन क्या है' के सूत्र से जीवन की कसौटी का परिचय मिलता है। जड़ और चेतन की स्थिति को समझते हुए राग और द्वेष की भावना से हटकर जब निर्णय शक्ति एवं समता भावना पल्लवित होती है तभी जीवन में एक सार्थक मोड़ आता है। अंतः जीवन की कसौटी यह होगी कि किसी को जड़ पदार्थों पर कितना व्यामोह है और चेतन शक्ति के प्रति कितनी क्रियाशील आस्था और निष्ठा है तथा वह मन को कितना स्थिर तथा निरपेक्ष रख सकता है या मन की चंचलता में अपनेपन को भूल कर बाहरी दलदल में फंसा हुआ है? इसी कसौटी पर किसी के जीवन की सार्थकता व सजीवता का अंकन किया जा सकता है (ग्रंथ 'समता: दर्शन और व्यवहार', अ-2 पृष्ठ 20-21, 23, 25-26, 30-31)। ___ जीवन क्या है और उसे कैसा होना चाहिए अथवा जीवन का अर्थ क्या है-यह समझना-समझाना सच्चे धर्म का काम है। ऐसे धर्म को मानव धर्म कहें, स्वभाव प्राप्ति का माध्यम कहें या कर्तव्यबोधक कहें-सब एक ही बात है। ऐसे धर्म का जीवन के साथ अभिन्न संबंध है। जीवन है और धर्म नहीं तो उस जीवन का कोई अर्थ भी नहीं। धर्म को जीवन के साथ एकरूप होना ही चाहिए-उसके पल-पल का पथ दर्शक बन कर उसे पूर्ण सार्थकता की राह पर आगे से आगे लेकर जाना ही चाहिए। जीवन विकास में सच्चे धर्म का योग-संयोग मिले-यह एक प्रकार की मनोदशा है जो शुद्ध है, शुभ है और बहुआयामी चरित्र का निर्माण तथा विकास करने वाली है। .. परन्तु यह एकदम अलग ही मनोदशा होगी, 'जहां धर्म के नाम पर' प्रवृत्तियां चलाने की चेष्टा की जाती है। धर्म के नाम पर मतलब साफ है कि ऐसी प्रवृत्तियां चलाने वालों का सच्चे धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं हो उन्हें तो अपनी प्रवृत्तियां चलाने के लिए सिर्फ धर्म का नाम यानी धर्म की आड़ 367
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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