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________________ सुचरित्रम् उसका साक्षात्कार करना है तो उसे लोगों के बीच ही खोजिए, वह वहीं मिलेगा। गांधी जी ने तो साफ-साफ कहा कि ईश्वर दरिद्रों की आत्मा में निवास करता है, इसलिए वह दरिद्रनारायण है और इन दरिद्रों के बीच उनके उत्थान का काम करते हुए ईश्वर के दर्शन होंगे-उसका साक्षात्कार होगा। जीवन की सार्थकता का ज्ञान तभी संभव है, जब जीवन की लहरों के साथ-साथ तैरने और तैरते रहने का अभ्यास किया जाए। साथ-साथ तैरने से जाना जा सकेगा कि एक से मानव जीवनों के बीच में कितनी दूरियां बढ़ गई हैं और उन्हें पाटने और सबको समान धरातल पर मिलाने के लिए क्या-क्या करना चाहिए और क्या-क्या किया जा सकता है व्यक्तिगत स्तर पर और सामाजिक स्तर पर भी? यदि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच, समूहों के बीच और पूरे संसार के पटल पर अनेक प्रकार की विकृतियों तथा विषमताओं को दूर करने के साझा प्रयत्नों में साझीदार बना जाए तो उसे अवश्य समझ में आ सकेगा कि इस जीवन का अर्थ क्या है? वास्तविक चरित्रशीलता क्या है और सच्ची आध्यात्मिकता की पहचान कहां पर है? जीवन का अर्थ इन्हीं क्षेत्रों में खोजिए। धर्म और धर्म के नाम पर दोनों अलग-अलग मनोदशाएं होती हैं : जीवन का क्या अर्थ है अथवा जीवन क्या है-मूल प्रश्न यही है। संसार में जीवन का अस्तित्व ही मुख्य विषयवस्तु है और इस कारण केन्द्र बिन्दु भी। अन्य प्रत्येक विषय पर जीवन को केन्द्र में रख कर ही सोचना चाहिए तथा तदनुसार जीवन के साथ जुड़ने वाले सभी प्रकार के संबंधों के औचित्य पर निर्णय लिया जाना चाहिए। जीवन विकास के साध्य-साधनों पर चिन्तन करने से पहले जीवन क्या है-इस मूल प्रश्न का सही उत्तर अवश्य खोज लिया जाना चाहिए। स्व. आचार्य श्री नानेश ने इस विषय पर गंभीर चिन्तन किया है तथा अपने मार्मिक निष्कर्ष निकाले हैं। उनका मानना है कि मनुष्य के मन में मल में रही समता ज्यों-ज्यों उभरती जाएगी, वह अपने व्यापक प्रभाव के साथ मानव जीवन को भी उभारती जाएगी। उसे अशान्ति, दुःख-दैन्य एवं निकृष्टता के चक्रवात से बाहर निकाल कर यही समता उसे शान्ति, सर्वांगीण, समृद्धि तथा श्रेष्ठता के सांचे में ढालेगी। ऐसी ढलान के बाद ही मनुष्य विषमताजन्य पशुता के घेरों से निकल कर आत्मीयता पूर्ण मनुष्यता का स्वामी बन सकेगा। आचार्य श्री ने उक्त मूल प्रश्न के उत्तर में अपना एक नवीन सूत्र प्रस्तुत किया है। उनका कथन है-इस दिशा में विशिष्ट सत्यानुभूति के आधार से यह नवीन सूत्र प्रस्तुत किया जा रहा है कि 'किं जीवनम्? सम्यक निर्णायकं समतामयं च यत् तज्जीवनम्।' जीवन क्या है-प्रश्न उठाया गया है और उसका उत्तर भी इसी सूत्र में दिया गया है कि जो जीवन सम्यक् निर्णायक और समतामय है, वास्तव में वही जीवन है।...जो जिया जाता है, वह जीवन है-यह तो जीवन की स्थूल परिभाषा है। एक आदमी को बोरे में बांध कर पहाड़ की चोटी से नीचे लुढ़का दिया जाए तो वह बोरा ढलान से लुढ़कता हुआ नीचे आ जाएगा-यह भी एक तरह से चलना ही हुआ। अपनी सजग दृष्टि के साथ चलता हुआ नीचे उतरे-उसे भी तो चलना ही कहेंगे, तो दोनों तरह के चलने में फर्क क्या हुआ? एक चलाया जाता है, दूसरा चलता है। चलाया जाना जड़त्व है तो चलना चैतन्य। अब दोनों के परिणाम भी देखिए। जो बोरे में बंधा लुढ़का कर चलाया जाता है, वह लहूलुहान हो जायगा-चट्टानों के आघातप्रतिघातों से वह अपनी संज्ञा भी खो बैठेगा और संभव है कि फिर लम्बे अर्से तक वह चल सकने के 366
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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