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________________ सुचरित्रम् धर्म (चरित्र, नैतिकता, कर्त्तव्य आदि) के स्थानों की जो अदला-बदली कर रखी है, उसे दुरूस्त की जाय। धन को धन के स्थान पर ले जावें और धर्म को धर्म के स्थान पर लावें। यह उल्लेख हो चुका है कि सही तौर पर धन का स्थान जूते के रूप में मनुष्य के पांवों में हैं और धर्म का स्थान पगड़ी के रूप में मनुष्य के माथे पर होना चाहिए। किन्तु आज के हालात उल्टे हैं। धन तो अधिकतर लोगों के माथे पर चढ़ा हुआ है यानी कि उन्होंने जूतों को सिर पर बांध रखा है और इसी तरह धर्म पैरों से कुचला जा रहा है, जैसे पगड़ी को गेंद बनाकर पैर उसे इधर-उधर उछाल कर उसकी बेइज्जती कर रहे हों। मूल में धन और धर्म को सही स्थानों पर पहुंचाने की ही समस्या मुख्य है। इस समस्या के सही समाधान खोजने की जरूरत है, क्योंकि इस समाधान से ही चरित्रशीलता की ज्योति प्रकट होगी तो ऐसा समाधान भी चरित्रबल के आधार पर ही निकाला जा सकेगा। क्याक्या हो सकती हैं ऐसे समाधान तक पहुंचने की राहें? यही मुख्य विचारणीय विषय समझा जाना चाहिए। - सारे संसार को एक मानव-शरीर का रूप मान लें तो धन को उसमें बहता हुआ खून मानना पड़ेगा। शरीर में खून कई वाहिनियों, नलिकाओं आदि द्वारा सारे स्नायु तंत्र में फैलता और बहता रहता है। शरीर का कोई भाग रक्त संचार से वंचित नहीं रहता और यदि रह जाए तो वह भाग लकवाग्रस्त हो जाता है। साथ ही जहां आवश्यकता से अधिक खून इकट्ठा हो जाए तो वह जमकर पूरे शरीर को कष्टित करता है। जमा खून गठानों में बदल जाता है, जिसकी चीरफाड़ जरूरी होती है। आशय यह है कि सर्वत्र नियमित एक संचरण ही पूरे शरीर को स्वस्थ रख पाता है। संसार के शरीर में यही रोल होता है धन का। धन खून की तरह आवश्यकतानुसार सर्वत्र बहता रहे तो सर्वत्र संतोष और सुख दिखाई देगा। लेकिन कोई या कई भाग अभावग्रस्त रह जावें तो वहां उतना ही विक्षोभ और दुःख फैलेगा। साथ ही कहीं धन-संग्रह का सिलसिला चले तो वहां गठानें उभर आएगी, जिन पर आज नहीं तो कल नश्तर जरूर चलाना पड़ेगा। गठानों वाला शरीर कभी स्वस्थ व सुखी नहीं रह सकता। स्वास्थ्य के अभाव में कहीं भी सुख में स्थायित्व भी नहीं आ सकता है। सुख नहीं तो शान्ति नहीं और शान्ति नहीं तो चरित्र विकास निर्विघ्न नहीं। ___ अपने-अपने जीवन में अनेक मनुष्यों को ऐसे आत्मानुभव होते रहते हैं कि संसार के स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली कुचेष्टाएं मनुष्य अपनी समझ से नहीं करता, बल्कि जैसे वे उसके द्वारा करवाई जाती हैं। कौन करवाता है-यह चौंकने की बात नहीं है। यह करवाने वाली उसकी स्वयं की विकृत वृत्तियां होती हैं जो उसे विवश कर देती हैं। तब उसका अपने ही मन पर अपना अधिकार नहीं रहता और वह किसी भी प्रकार अधिक से अधिक धन पाने की लिप्सा में फंस जाता है। वही लिप्सा मनुष्य से वे हरकतें यानी की कुचेष्टाएं करवाती है। ऐसा तब होता है जब धन जड़ होकर भी चेतन मनुष्य को चलाता है और मनुष्य धन का दासत्व स्वीकार कर लेता है। यदि मनुष्य धन को चलावे और उसका प्रभावशाली स्वामी बने तो ऐसी कुचेष्टाएं कतई नहीं होगी-कहीं भी न लकवा लगेगा और न गठानें उठेगी। सब ओर धन बहता रहेगा और सबको अपने लाभ से समानता के आधार पर आल्हादित करता रहेगा। यह तो आन्तरिकता का सशक्त उपाय रहा। 362
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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