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सुचरित्रम्
मतलब यही निकला है कि मनुष्य पंगु हो गया है-उसकी प्रकृति पर आधारित जीवनचर्या समाप्त हो गई और उसका स्वास्थ्य भी चौपट हो गया। वह विलासी बन गया-तन बिगड़ा, मन बिगड़ा और यों पूरा जीवन बिगड़ा । प्राप्त सुख साधनों का वह स्वामी नहीं बना, बल्कि उनका दास हो गया। उसने स्वावलम्बन खोया, स्वतंत्रता गुमाई और स्वाभिमान डुबोया। मानवता के मूल्य गिरे, सामाजिक सहयोग मिटा और स्वार्थ के शिकंजे ने सब कुछ ढक लिया। सभ्यता और संस्कृति के मानदंड बदल गए, रहन-सहन के ढंग बदल गए और ऐसी फैशन का फैलाव हुआ जिसका आन्तरिकता से दूर-दूर का भी नाता नहीं। विज्ञान की विलासिता वर्धक प्रगति ने धनी को अधिक धनी और गरीब को ज्यादा गरीब बना दिया। गरीबों की संख्या निरन्तर बढ़ती रही है बल्कि एक काल्पनिक गरीबी की रेखा से भी नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों का भी एक बहुत बड़ा वर्ग खड़ा हो गया है। सबसे बुरी बात तो यह हुई है कि धनी वर्ग ने येन-केन-प्रकारेण धनार्जन के हथकंडे अपनाए तो मजबूर बहुसंख्यक वर्ग भी अपराध और हिंसा की ओर मुड़ने लगा। इस प्रकार समाज के सभी क्षेत्रों में विषमता की खाइयां खुद गई हैं।
2. संहारक : विज्ञान का पतन-कारक एक रूप है तो यह दूसरा रूप घातक है। मानव विनाश के इतने शस्त्रास्त्रों का अम्बार लगा है कि कौन कब आणविक शस्त्रों का बटन दबा दे और नरसंहार के भीषण दृश्य सामने आ जावे। एक ओर धन कमाने की दौड़ है तो उससे भी ज्यादा पागल दौड़ है सत्ता पाने और उस पर कब्जा जमाए रखने की और इस दौड़ में शामिल हैं देशों के शासन नायक और सत्ताधीश। इनमें भी कुछ बड़े देश पूरी दुनिया पर राज करने के सपने देखते हैं जो मौका आने पर विज्ञान की सारी संहारक शक्ति का प्रयोग करने में नहीं हिचकिचाएंगे। यह मौका कब आवे या कब लाया जाएगा, कोई नहीं बता सकता।
वर्तमान परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए यह माना जा सकता है कि चाहे विज्ञान का सत्ता स्वार्थी शासकों द्वारा दुरूपयोग ही किया गया हो अथवा किया जा रहा हो, पर आज की तारीख और . तवारीख में विज्ञान विलासितावर्धक तथा संहारक ही सिद्ध हो रहा है और इसका मुख्य कारण है समुचित प्रभावशाली नियंत्रण का अभाव। इस दृष्टि से मूल में समस्या विज्ञान नहीं बल्कि स्वार्थ है जिस पर जब तक मारक प्रहार नहीं होगा तब तक विज्ञान के दुरूपयोग को रोक पाना भी शायद ही संभव हो सके।
यहां आकर इस सत्य को स्वीकार करना होगा कि व्यक्ति जब अपना चरित्र खो देता है और समाज में भी चरित्रहीनता का वातावरण छा जाता है तब किसी भी अच्छाई को बुराई के हमले से बचा पाना कठिन हो जाता है। जितनी चरित्रहीनता गहरती जाती है। उतने ही परिमाण में अच्छे साधनों का भी मानवता के अहित में जम कर दुरूपयोग होने लगता है। अत: चरित्र को मुख्य बिन्दु मानना ही होगा और उसके ही सर्वत्र उत्थान के उपाय करने होंगे। साथ में यह विश्वास भी पक्का बन जाना चाहिए कि विज्ञान को धर्म के साथ जोड़ा जाए ताकि सर्वांगीण विकास को गति भी मिले तो नियंत्रण की पूर जोर शक्ति भी। वाहन में जितना गति का महत्त्व होता है, उतना नियंत्रण (ब्रेक) का भी। अब विज्ञान पर पक्के ब्रेक लगाने का समय आ गया है।
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