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________________ सुचरित्रम् चारित्रिक व्यक्तित्व के समग्र विकास हेतु शिक्षा प्रणाली का निर्धारण : संसार का घटक है व्यक्ति और व्यक्ति की पहचान होती है उसके व्यक्तित्व से। यह व्यक्तित्व निर्मित होता है शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक गुणों को आचरण में उतारने से जिसे समुच्चय में चारित्रिक व्यक्तित्व का नाम दिया जा सकता है। पाश्चात्य विचारकों ने जहां व्यक्तित्व विकास के लिए बाह्य प्रतीकों-जैसे वेशभूषा, शिष्टाचार, बौद्धिकता आदि को विशेष महत्त्व दिया है, वहां पौर्वात्य विचारकों ने मानवीय मूल्यों एवं आन्तरिक गुणों को व्यक्तित्व का प्रधान अंग माना है। भर्तृहरि ने अपने ग्रन्थ नीतिशतक (63) में धैर्य, सहिष्णुता, आत्मनियंत्रण, वाणी चातुर्य, कर्त्तव्यनिष्ठा आदि को महान् व्यक्तित्व के घटक गुण कहा है, वहां जैन आचार्यों ने व्यक्तित्व को प्रभावशाली, लोकप्रिय एवं सदाचार सम्पन्न बनाने के लिए इक्कीस सद्गुणों पर विशेष बल दिया है, जिनमें उदारता, स्वभाव सौम्यता, करुणाशीलता, विनय, न्यायप्रियता, कृतज्ञता, धर्मनिष्ठा आदि सम्मिलित हैं (प्रवचन सारोद्धार द्वार 238, गाथा 1365-58)। शिक्षा का अर्थ केवल पुस्तकीय ज्ञान नहीं है-उसे व्यक्तित्व का सर्वांग विकास करना चाहिए। अक्षर ज्ञान शिक्षा का एक अंग मात्र है। शिक्षा का फलित है-ज्ञान और आचार तथा बुद्धि और चरित्र का समग्र विकास। आधनिक शिक्षा शास्त्रियों-फ्रोबेल. डीवी. मॉन्टेसरी आदि ने विभिन्न शिक्षा प्रणालियों का प्रतिपादन किया है, किन्तु मुख्य रूप से शिक्षा प्रणाली के दो ही प्रकार होते हैं-1. अगमन (इंडक्टिव) और 2. निगमन (डिडक्टिव)। अगमन प्रणाली में शिक्षक अपने छात्रों को कोई सिद्धान्त या विषय समझाता है और वे उसे समझ लेते हैं-कंठस्थ कर लेते हैं। पूछने पर समझा हुआ बोल या लिख दिया जाता है। निबन्धात्मक प्रश्नोत्तर इसी प्रणाली के अन्तर्गत आते हैं। निगमन प्रणाली में पहले परिणाम या फल बताकर फिर सिद्धान्त निश्चित किया जाता है। इस प्रणाली में उत्तर छात्रों से निकलवाए जाते हैं जिससे उनकी बुद्धि एवं योग्यता का परिचय मिलता है। लघु उत्तरीय प्रश्न इस प्रणाली के अन्तर्गत है। दोनों प्रणालियां अपने-अपने ढंग से ज्ञान और बुद्धि के विकास के साथ व्यक्तित्व का विकास करती है। ___ यहां प्राचीन जैन शिक्षा प्रणाली का उल्लेख दिशा सूचक होगा, जिसमें उपरोक्त दोनों प्रणालियों के तत्त्व समाए हुए हैं। उनसे अधिक विशेषता यह भी है कि जैन प्रणाली में शिष्य की पात्रता, उसका विनय चरित्र एवं उसकी आदतों-अन्तर्हदय की भावनाओं आदि पर भी ध्यान केन्द्रित किया जाता था। समग्र लक्ष्य था तेजस्वी व्यक्तित्व (डायनमिक पर्सनेलिटी) का निर्माण। जैन प्रणाली के अनुसार शिक्षा दो प्रकार की है 1. ग्रहण शिक्षा : शास्त्रों का ज्ञान, शुद्ध उच्चारण, पठन, अर्थ, भावार्थ आदि। 2. आसेवना शिक्षा : नियमों का पालन, व्रतों का आचरण, दोषों का परिमार्जन, निर्मल चरित्र आदि। दोनों विधियां मिलकर सर्वांग एवं सम्पूर्ण शिक्षा का स्वरूप बनाती है। शिक्षा प्रारम्भ की अवस्था सामान्य रूप से पांच वर्ष से मानी गई है तथा शिक्षण काल में छात्र की पात्रता तथा योग्यता की परीक्षा ली जाती थी। पात्रता के आठ गुण निर्धारित थे-हास्य न करना, इन्द्रिय दमन करना, मर्म 346
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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