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________________ श्रेष्ठ शिक्षा, संस्कार से सामर्थ्यवान व गुणी व्यक्तित्व का निर्माण वचन न बोलना, शीलवान, चरित्र निष्ठा, रसलोलुप न होना, क्रोध नहीं करना तथा सत्यभाषी होना (उत्तराध्ययन, 11/4-5 ) । शिक्षा प्राप्ति में पांच बाधक कारण माने गए अहंकार, क्रोध, प्रमाद (निद्रा, व्यसन) रोग, आलस्य (उत्तराध्ययन 11-3)। जैन शिक्षा पद्धति में विनय और अनुशासन को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है और संस्कार व समर्पण को आधार माना है। कहा गया है-गुरु की आज्ञा मानना, गुरुजनों के समीप रहना, उनके मनोभावों को समझना एवं तदनुसार आचरण करनाये विनीत के लक्षण हैं (उत्तराध्ययन, 1-2 ) । विनय के रूप में विद्यार्थी के अनुशासन, रहन-सहन, व्यवहार, बोलचाल आदि सभी विषयों पर बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया जाता था। उस पद्धति की प्रश्नोत्तर शैली भी जिज्ञासा को प्रोत्साहित करती थी । श्रेष्ठ समाधानों का भी उसमें समावेश था। जैन शिक्षा पद्धति में विद्यार्थी की चारित्रिक विशेषताओं पर गंभीरता से विचार किया गया तथा तत्सम्बन्धी पन्द्रह गुणों का उल्लेख किया गया - 1. नम्रता, 2. अचपलता, 3. दंभी नहीं होना, 4. कौतूहल से दूर, 5. निन्दा नहीं करना, 6. क्रोध पर नियंत्रण, मन में भी शान्ति 7. मित्रता निबाहना, कृतज्ञ होना, 8. ज्ञान प्राप्ति पर अहंकार नहीं, 9. किसी की भूल का न तिरस्कार, न उपहास 10. मित्रों - साथियों के साथ अक्रोध, 11. मित्र के साथ अनबन पर भी बुरा नहीं सोचना, निन्दा नहीं करना, भला ही करना, 12. कलह, विवाद, झगड़ों से दूर, 13. स्वभाव से शिष्ट, कुलीन, मृदु, 14. बुरे काम में शर्म महसूस करने वाला एवं 15. अपने आपको संयत एवं शांत रखना (उत्तराध्ययन, 11/10-14 ) । आज हम इक्कीसवीं शताब्दी में पहुंच गये हैं, इस कारण अब तक के विकास, वर्तमान परिस्थितियों एवं भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर नई शिक्षा पद्धति का गठन अब किया जाना चाहिए, जिसमें प्राचीन एवं अर्वाचीन प्रणालियों के श्रेष्ठ गुणों का समावेश हो । आज सफल जीवन की क्या चारित्रिक आवश्यकताएं हैं- इस पर विचार करें। जीवन सात अंगों की समष्टि का नाम है जो हैं- शरीर, श्वास, प्राण, मन, भाव, कर्म और बुद्धि । इन सात अंगों की उन्नति और पुष्टि पर ध्यान दें तो मोटे तौर पर जीवन की आवश्यकताएं उभरती हैं-प्रशिक्षण ( मानसिक, शारीरिक आदि), अभ्यास संस्कार - आरोपण एवं चरित्र निर्माण। इनकी पूर्ति से जीवन की गतिशीलता, निर्मलता और उपयोगिता विकसित होगी। नई बताई जाने वाली शिक्षा पद्धति में इन मूल तत्त्वों का ध्यान रहे - 1. रोटी जीने की पहली शर्त है अतः नीतिपूर्वक जीविकोपार्जन की गारंटी, 2. विषयों की प्राथमिकता में भाषा, गणित, कला, इतिहास, भूगोल, विज्ञान आदि का इतना कम से कम से अध्ययन कि निर्वाह क्षमता बने और उच्चतर अध्ययन विशेषज्ञता के लिए, 3. अनावश्यक विषयों को निकालना तथा आवश्यक विषयों को जोड़ना जो नीति और चरित्र को स्वस्थता एवं दृढ़ता देने वाले हो, 4. उच्चतर शिक्षा के लिये चयन अभिरुचि एवं योग्यता के अनुसार ही, 5. अन्तर्जगत् एवं बाह्य जगत् के सुन्दर समन्वय की शिक्षा का समावेश, 6. अनुकूल ही नहीं, प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शिक्षा के उपयोग की व्यावहारिकता का प्रशिक्षण, 7. संस्कार बीज के विस्तार तथा परिष्कार की मनोदशा का निर्माण आदि । नई पद्धति की स्पष्ट रूपरेखा को राष्ट्रीय बहस के बाद अन्तिम रूप दिया जाना चाहिए। शिक्षा पद्धति 347
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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