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________________ श्रेष्ठ शिक्षा, संस्कार से सामर्थ्यवान व गुणी व्यक्तित्व का निर्माण दोनों के पहले 'सत्' विशेषण लग पाएगा। संस्कार निर्माण से सत्शिक्षा तथा सत्शिक्षा से सुसंस्कारों के सृजन का क्रम सतत रूप से चलता रहना चाहिए। शिक्षा का उद्देश्य ही चरित्र विकास, तभी तो कहा है-'सा विद्या या विमुक्तये': शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य ही यह है कि जीवन के प्रारंभिक काल में अच्छी आदतें ढाली जाए, अच्छे संस्कार निरूपित किए जाए और ऐसे चरित्र का निर्माण किया जाए, जो अच्छी नागरिकता की क्षमता का विकास कर सके। केवल जीविका निर्वाह की क्षमता जीवन को सार्थक नहीं बना सकती है, किन्तु आज की शिक्षा तो यह भी नहीं कर पा रही है। मानव चरित्र के नवरूप की तैयारी करने का समय आ गया है जिसका आधार होना चाहिए धर्म और विज्ञान का सामंजस्य अथवा भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का समन्वय तथा यही आधार शिक्षा को दिया जाना चाहिए। इस प्रकार की शिक्षा से जो नया व्यक्तित्व जन्म लेगा वह चरित्र का विकास करते रहने में पर्याप्त रूप से क्षमतावान भी होगा। - वह शिक्षा ही कैसी, वह ज्ञान ही क्या और किस प्रकार की है वह विद्या, जो आचरण का रूप न लेती हो चरित्र निर्माण को प्रोत्साहित न करती हो? क्रियाहीन कोरी विद्या का क्या मूल्य है? जो जीवन की बेड़ियां नहीं तोड़ सकती हो, सारे बन्धनों को हटा देने की क्षमता पैदा नहीं कर सकती हो, वैसी विद्या बन्ध्या है, वैसी शिक्षा निष्फल है और वैसा ज्ञान निरर्थक है। महर्षि मनु ने विद्या की - सार्थकता को स्पष्ट करते हुए उचित ही कहा है कि विद्या वही है, जो हमें विकारों से मुक्ति दिलाने वाली हो (सा विद्या या विमुक्तये), हमें स्वतंत्र करने वाली हो, हमारे बन्धनों को तोड़ने वाली हो। मुक्ति का अर्थ है-स्वतंत्रता, बन्धन मुक्ति। सामाजिक कुरीतियों, पारिवारिक कुसंस्कारों, धार्मिक अंधविश्वासों, पारस्परिक गलतफहमियों और मानसिक आशंकाओं आदि से-जिनसे भी वह जकड़ा हुआ हो-उनसे छुटकारा पाना ही सच्ची स्वतंत्रता है। शिक्षा और कुशिक्षा के अन्तर को आंक पाना भी जरूरी है। यदि किसी ने अध्ययन करके चतुराई, ठगने की कला और धोखा देने की विद्या सीखी है तो कहना चाहिए कि उसने शिक्षा नहीं, कुशिक्षा पाई है। कुशिक्षा अशिक्षा से भी ज्यादा भयानक होती है। इसीलिए शिक्षा के वास्तविक लक्ष्य को ध्यान में ले। मूलतः यह लक्ष्य है अज्ञान को दूर करना। अज्ञान है अपने आपको नहीं जान पाना। मनुष्य में जो शारीरिक, मानसिक तथा आत्मिक शक्तियां मौजूद हैं और जो अज्ञान के नीचे दबी हुई है, उन्हें प्रकाश में लाना तथा समुचित चरित्र का निर्माण करना शिक्षा का दायित्व है। शिक्षा के फलस्वरूप जीवन में सुसंस्कार उत्पन्न होते हैं और जीवन की सभी शक्तियों के विकास के साथ ऐसी क्षमता फूटती है जिसके द्वारा मानव चरित्र का श्रेष्ठतम स्वरूप संवारा जाता है। तभी शिक्षा को सफल कह सकते हैं। सफल शिक्षा व्यक्ति को जीवन की सफलता का मूल मंत्र प्रदान करती है जो है-विनम्रता। नीति में कहा गया है कि विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता मिलती है, पात्रता से धन प्राप्त होता है और धन से धर्म तथा धर्म से सुख मिलता है (विद्या ददाति विनयं, विनयात् याति पात्रताम्: पात्रत्वां धनमाप्नोति, धनं धर्म ततः सुखम्)। विनय को विद्या प्राप्ति का चरम लक्ष्य माना जा सकता है। 345
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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