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सुचरित्रम्
से बचा सके, किन्तु अभिभावक भी दायित्वहीन हो रहे हैं। वे सोचते हैं कि चरित्र निर्माण का कार्य शिक्षक और शिक्षण संस्थाओं का है। शिक्षक और शिक्षण संस्थाएँ अब शिक्षा को सेवा नहीं, व्यापार मानने लगी हैं। कुल मिलाकर देश की नई पीढ़ी के चरित्र निर्माण की जिम्मेदारी कोई नहीं ओढ़ रहा है। संस्कारों का आधार नहीं है तब भी शिक्षा तो हैं, पर वह सत्शिक्षा नहीं है और सत्शिक्षा नहीं है तो भविष्य के लिए ससंस्कारों के सजन का और चरित्र विकास का महद कार्य उपेक्षित है। इस दष्चक्र को तोडना होगा और सभी सम्बन्धित वर्गों को अपना दायित्व समझना होगा। संस्कार एवं शिक्षा को जोड़ना तो होगा ही, किन्तु उससे पहले उस वातावरण से संघर्ष करना होगा जो चरित्र निर्माण एवं विकास के लिए बाधक ही नहीं, घातक भी बना हुआ है। संस्कारविहीन शिक्षा एक अभिशाप से कम नहीं तो शिक्षा का भी प्रधान लक्ष्य निर्धारित होना चाहिए संस्कारों का संचार तथा चरित्र का निर्माण। __संस्कार निर्माण और सत्शिक्षा का सम्मिलित उद्देश्य होना चाहिए-चरित्रशील मानव का सृजन तथा ऐसे सामाजिक जीवन की रचना, जिसमें मूल्यवत्ता एवं गुणवत्ता का स्थान सर्वोपरि हो। सामाजिक जीवन में नैतिकता का मूल्य सब समझें और व्यावहारिक जीवन में उसका पालन हो, ऐसी संस्कारिता स्थाई बननी चाहिए। सामाजिक जीवन के तीन आधार स्तम्भ होते हैं-1. पारस्परिकता या परस्परता, 2. नैतिकता एवं सहनशीलता तथा 3. मानवीय सम्बन्धों की तरलता एवं पालनीयता। नैतिकता की समझ भी आज अधूरी है-उसके आधार तत्त्वों की स्पष्टता जरूरी है ताकि उन्हें शिक्षा की किसी भी योजना में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जा सके। नैतिकता के आधार स्तम्भों को किसी प्रकार की संकुचितता से नहीं जकड़ना चाहिए, बल्कि ऐसा सार्वजनिक रूप दिया जाना चाहिए कि उसमें सभी विकारों एवं सबकी भावनाओं का समावेश हो।
नैतिकता को पथ भ्रष्ट करने और इस रूप में संस्कारिता तथा शिक्षा को बिगाड़ने का दोष आज के अर्थ युग को प्रमुख रूप से दिया जा सकता है। अर्थ की उपयोगिता को नकारने की बात नहीं है, किन्तु उसे जिस तृष्णा और लालसा के साथ जीवन का साध्य मान लिया गया है, उसी दूषित मनोवृत्ति एवं विकृत वातावरण ने सभी वर्गों में एक प्रकार की अराजकता-सी फैला दी है-मातापिता को अपने ही कार्यकलापों का भान नहीं तो उनके पास सत्संस्कार है कहां? शिक्षकों को भी जीवन की वही सारी सुख सामग्री चाहिए जो नौकरशाह हड़पते हैं तो चरित्र निर्माण और शिक्षा की रचनात्मकता पर उनका ध्यान कैसे केन्द्रित हो? शिक्षण संस्थाएं व्यापार की मंडियां बन चुकी हैपैसा दो, प्रवेश लो और पढ़ो। समाज नायकों को ठेकेदारी से ही फुर्सत नहीं है, वे संस्कारों और शिक्षा की शुभता को कैसे समझें? और बचे धर्मनायक जो यशलिप्सा के चक्र में ऐसे भ्रमित हैं कि वे अपना चरित्र टटोलें या दूसरों का? यों अर्थ के आकर्षण ने सारी व्यवस्था को ही पटरी से नीचे उतार दी है। ऐसे में चरित्र की बात करना और चरित्र विकास को बढ़ावा देना कमर कस कर चलने के संकल्प के बिना संभव नहीं हो सकता है। नैतिकता, आर्थिक पवित्रता और सदाचार के प्रति निष्ठा जगानी होगी जो तभी होगा जब तृष्णा के भीषण दुष्परिणामों से सामान्यजन को अवगत कराया जाए। क्रान्ति जड़ से उठनी चाहिए। इस क्रान्ति से ही संस्कार और शिक्षा का द्वेत टूट पाएगा और
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