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श्रेष्ठ शिक्षा, संस्कार से सामर्थ्यवान व गुणी व्यक्तित्व का निर्माण
जाता है। तभी तो शिशु जो जन्म लेता है, वह भी निर्गुण नहीं होता। फिर जन्म से वह गुण कहां से लाता है? इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति केवल अपने में से ही नहीं, परस्परता में से वह लेता है। आशय यह है कि वह गुण पारस्परिकता से लेता है और गुण लाता है रक्त से-आनुवांशिकता से। ये संस्कार माता-पिता के होते हैं और माता-पिता के संस्कार उनके माता-पिता से और इस प्रकार क्रम का सिलसिला अन्तहीन होता है। संस्कारों की श्रृंखला के विषय में वैज्ञानिक डार्विन की अपनी थ्योरी है कि संस्कार पशु से आदि-मानव में और फिर जागे से आगे पनपते रहे हैं। किन्तु सांस्कृतिक थ्योरी यह नहीं। जब भी आदि तत्त्वों से सचेतन सृष्टि हुई तब कहा जा सकता है कि बीज रूप में सत्-चित्त-आनन्द आदि तत्त्व ही गर्भित था। इस प्रकार आदि संस्कार प्राणी मात्र और मनुष्य मात्र में अन्तर्भूत चिन्मयता का हो जाता है-शेष सब संस्कार उस पर ऊपर से चढ़े हो सकते हैं। मूल संस्कार यह दिव्यता और चिन्मयता है। ___ जीव अपने को ही दो में बांट लेता है और फिर गुणानुगुणित होता जाता है। संस्कार देने और प्राप्त करने की भूमिका शायद यहीं उत्पन्न हुई। पहले स्व-परता या परस्परता नहीं थी, अतः परस्परता के साथ ही संस्कारिता आई। संस्कारों को व्यक्ति द्वारा उद्भुत माना जाता है, किन्तु वास्तव में वे प्रतित्व से पैदा होते हैं। पुरुष-स्त्री भावों की या अन्यथा परस्परता में से संस्कार बनते और बिगड़ते हैं। उन पर स्वाधिकार किसी का नहीं है और न वे किसी समय प्रति निश्चित हो पाते हैं। ऐन्द्रिक आदान-प्रदान सम्प्रदान वे माध्यम हैं, जिनसे परस्परता सृष्ट, पुष्ट एवं व्यक्त होती है तो खंडित और भ्रष्ट भी होती है। संस्कार निर्माण एवं चरित्र विकास को प्रभावित करने वाले अनेक तत्त्व हैं, उनमें परस्परता का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। ..
सुसंस्कारों के निर्माण की यात्रा के सभी तत्त्वों तथा सभी पहलूओं को बारीकी से समझने की जरूरत है ताकि परिमार्जन एवं परिवर्तन की दृष्टि स्पष्ट हो सके और इनसे सम्बन्धित प्रयलों को एकजुट करके सार्थक बनाया जा सके। संस्कार निर्माण से सरिशक्षा तथा सशिक्षा से सुसंस्कार सृजन : __ शिक्षा के साथ संस्कारों को न जोड़ पाने का खामियाजा आज हमारा देश भुगत रहा है। इस देश में छात्रों की ऐसी-ऐसी अवांछित गतिविधियों के समाचार बराबर छपते रहते हैं, जिन्हें जान सुन कर यह सोचना मुश्किल हो जाता है कि यहां कभी शिक्षा की गुरुकुल पद्धति प्रचलित थी। आज के विद्यालय, महाविद्यालय शिक्षा और विद्या के मंदिर हैं अथवा राजनीति के युद्धस्थल, नशेबाजी व कुकृत्यों के अड्डे और अनुशासनहीनता के जीते-जागते नमूने, असलियत सभी जानते हैं। रेगिंग की प्रथा तो उच्छृखलता की हद है। शिक्षाविद् और राजनेता बराबर भाषण देते रहते हैं कि बच्चों में प्रारम्भ से शुभ संस्कार डालने चाहिए किन्तु इसके लिए क्या उपाय करने चाहिए-कोई नहीं बताताप्रयास की बात तो बहुत दूर की है।
बाल्यावस्था से ही सुसंस्कार ढालने का कार्य शुरू हो जाना चाहिए ताकि चरित्र निर्माण की तभी से शुरूआत हो जाय तो चरित्र विकास छात्र जीवन तथा आगे के जीवन में आने वाली सारी बुराइयों
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