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सुचरित्रम्
और आगे की पीढ़ियों के लिए भी चरित्र विकास का सुगम पथ निर्धारित करती है। इस यात्रा के विस्तार की कोई सीमा नहीं और इसकी प्रभाविकता का कभी भी अन्त नहीं। यह यात्रा बहती हुई नदी के समान है जिसका जल सबको स्पर्श करता है किन्तु नदी जल के समान ही इस यात्रा के मार्ग में भी मैला बिखरा होता है, कांटे-कचरा फैला रहता है और तीखी चट्टानों के समूह छिपे रहते हैं जल स्पर्श के साथ यात्रियों को इनका भी सामना करना होता है। कुछ यात्री जो अपने संकल्प को साहस के साथ सहेजे हए चलते हैं. वे मैल से भी बचते हैं. कांटों-कचरे को एक ओर हटा देते हैं तथा चट्टानों से अपने तन-बदन को छिलने नहीं देते। लेकिन कई यात्री उस मैल से खुद को भी मैला बना देते हैं. कांटों-कचरे में उलझ जाते हैं और चट्टानों से टकरा कर अपने को लहलहान कर लेते हैं। इस प्रकार की दोनों स्थितियां चलती रहती हैं और इनसे सम्बन्धित प्रत्येक यात्री की मनोदशाएं भी बदलती रहती है। अगला यात्री इसी रूप में पिछले यात्री के लिए अपने संस्कार छोड़ता जाता है और यों संस्कारों की एक श्रृंखला बनती जाती है-परम्परा ढ़लती जाती है। परम्पराओं के निर्माण में संस्कारों की बराईयों और कमजोरियों को दर करते हए सभी संस्कारों की श्रेष्ठताओं को सम्मिलित किया जाता है जो भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा की स्रोत बनती है। सुसंस्कारों के निर्माण की इसी यात्रा में चरित्रहीनता को मिटाने तथा चरित्र विकास को प्रोत्साहन देने के प्रयास भी चलते रहते हैं।
सुसंस्कारों के निर्माण की यह यात्रा एक जन्म तक भी सीमित नहीं होती है। जैसे मनुष्य आते रहते हैं और जाते रहते हैं, पर सृष्टि सतत चलती रहती है, उसी प्रकार यह यात्रा भी जन्म जन्मान्तरों तक चलती रहती है। इसकी निरन्तरता कभी टूटती नहीं है। कर्म सिद्धान्त की स्थिति को लेकर अनुवेक्षिक शब्द का प्रयोग किया जाता है। यह शब्द आज के वैज्ञानिक जगत् में स्पष्ट रूप से आ चुका है। भारत में जन्मे डॉ.खुराना के बाद भी 'जीन' पर अनेक वैज्ञानिक अनुसंधान किये जा रहे हैं तथा आनुवांशिक प्रभाव के क्षेत्रों की परख की जा रही है। जीन्स की सहायता से मानव संस्कारों का ही अध्ययन नहीं किया जा रहा है, बल्कि कृषि आदि क्षेत्रों में इसके सफल प्रयोग भी किए जा रहे हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि संस्कारों के निर्माण, उद्गम, स्वरूप, फैलाव, जमाव आदि विभिन्न परिस्थितियों पर वंशानुक्रम का कितना और कैसा असर होता है तथा उस असर को प्रभावित कैसे किया जा सकता है-इसका भी अध्ययन चल रहा है। संस्कार निर्माण की प्रक्रिया में इससे नये आयाम जुड़ सकेंगे और कैसे भी संस्कारों को सुसंस्कारों में रूपान्तरित करने के प्रभावकारी उपायों की उपलब्धि की जा सकेगी। वंश परम्परा से आने वाले संस्कारों को चरित्र विकास के अनुकूल भी बनाया जा सकेगा। सुसंस्कारों के निर्माण का पथ प्रशस्त हो, सुसंस्कारों का सर्वत्र पूंजीकरण बने तथा वह चरित्र विकास के रूप में कार्यशील बन कर व्यक्ति एवं समाज के जीवन में शुभ एवं सुखद परिवर्तन लावे-आज ऐसे सघन प्रयत्नों की अपेक्षा है।
यह ज्ञातव्य है कि संस्कारों का निर्माण एकाकी नहीं होता, वह परस्परता का परिणाम होता है। समाज के विशाल क्षेत्र में जो शुभाशुभ गतिविधियां चलती है-घात-प्रतिघात होते हैं, उनका प्रभाव 'मैं, तुम और सब' पर पड़ता है और यहीं से संस्कारों की उत्पत्ति होती है। ये संस्कार ही बिगड़तेसुधरते-बदलते हुए पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहते हैं जब तक कि कोई आमूलचूल परिवर्तन नहीं आ
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