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________________ धर्म और विज्ञान का सामंजस्य निखारेगा मानव चरित्र का स्वरूप । वर्तमान को आप धर्म और विज्ञान का संधिकाल कह सकते हैं और शायद इसी प्रक्रिया में यह अनिश्चितता, अव्यवस्था एवं कुंठा का काल बन गया है। लगता है कि इसकी दिशा विघटन की ओर है और दशा है भावशून्य आस्थाहीन गतिरोध की, जिस कारण यह मूल्यों का संकट काल भी है परन्तु आज का मनुष्य अपनी सभी प्रकार की समस्याओं के प्रति जागरूक भी है और उनके समाधान निकालने के लिए उत्साहित भी। ऐसे समय में यदि उसके चरित्र का विकास प्रभावी ढंग से किया जा सके तो इस काल को उन्नति काल में बदला जा सकता है। अब मनुष्य जाति को समस्या बोध के साथ सम्यक् समाधान हेतु नये विश्वासों की खोज करनी होगी जो उसे धर्म विज्ञान के सामंजस्य से . प्राप्त हो सकेंगे। मानव चरित्र का नवरूप निखरेगा आध्यात्मिक विज्ञान और वैज्ञानिक अध्यात्म से: - कल्पना करें कि एक कद कठी के दो घोड़े साथ-साथ खड़े हैं और दोनों पर सवार चढ़े हुए हैं। एक घोड़ा है काठ (लकड़ी) का, जिस पर जीन भी कसी हुई है और लगाम भी लगी हुई है। नीचे की लकड़ी इस तरह गोलाई में है कि बैठा हुआ उस तरह आगे पीछे होता हुआ रह सकता है, जैसे सचमुच के घोड़े पर चढ़ा हुआ हो। फर्क है तो इतना ही कि घोड़ा एक इंच भी आगे नहीं खिसकता। दूसरा असली घोड़ा है अरबी नस्ल का। लेकिन उस पर न जीन है न लगाम। जब दौड़ता है तो हवा से बातें करता है और उस वक्त सवार की दशा कुछ न पूछिए, गिरते-गिरते बच गया तो किस्मत, वरना हड्डी पसली एक हो जाती है। अब पूछा जाए कि कौनसा घोड़ा पसन्द है तो शायद विवेकवान पुरुष किसी भी घोड़े को पसन्द नहीं करेगा। कारणों पर विचार करें। घोड़े की सवारी दूरी पार करने के लिए होती है और काठ का घोड़ा उस नजरिए से एकदम बेकार है-हां, बच्चों को वह लुभाता है और वे उस खिलौने से खूब खेलते हैं। दूसरा घोड़ा बहुत तेज है-दूरी बिजली की गति से पार करता है लेकिन वह गति भी किस काम की, जिस पर हर वक्त मौत मंडराती रहे। कह सकते हैं कि अपनी-अपनी कमियों से दोनों घोड़े बेकार हैं, लेकिन एक बात है। अगर काठ के घोड़े पर से जीन उतार कर अरबी घोड़े की पीठ पर कस दी जाय और लगाम उसके मुंह में लगा दी जाए तो फिर सवार उस घोड़े पर कुशलतापूर्वक और निश्चिन्त होकर सवारी कर सकेगा और मंजिल पर भी कम से कम वक्त में पहुंच जाएगा। कल्पना जरा आगे बढ़े कि काठ का घोड़ा है वह धर्म या अध्यात्म है और अरबी घोड़ा है विज्ञान, लेकिन अपनी वर्तमान अवस्था में दोनों ही मानव जीवन के लिए उतने उपयोगी नहीं, जितना कि उन्हें होना चाहिए। लेकिन अगर धार्मिकता की जीन उदंड विज्ञान की पीठ पर कस दें और नैतिकता की मजबूत लगाम लगा कर उसे मनुष्य अपने मजबूत हाथों में कस कर पकड़ ले तो विज्ञान धार्मिक और नैतिक हो जाएगा तथा उन बदली हुई परिस्थितियों में धर्म विज्ञान बनने लगेगा, क्योंकि ज्ञान तथा सारे आचार विधान का प्रमाणीकरण अनिवार्य हो जाएगा। इस परिवर्तन को इस तरह कहा जा सकता है कि एक आध्यात्मिक विज्ञान बन जाएगा तो दूसरा वैज्ञानिक अध्यात्म। और तब यह नि:संकोच माना जा सकता है कि इन दोनों रूपों की भूमिका पर अद्भुत रूप होगा और वह नव रूप ऐसा निखरेगा कि जिसका निखार व्यक्ति से विश्व तक फैल जाएगा। 337
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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