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________________ सुचरित्रम् समता दर्शन प्रणेता स्व. आचार्य श्री नानेश ने 'धर्म और विज्ञान के समन्वय' पर भी गहरा चिन्तन किया तथा अपना निष्कर्ष निकाला है। उनका मन्तव्य है कि "प्रभु महावीर की परम पवित्र देशना प्रथम देशना के रूप में उद्घोषित हुई थी-"जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ। जे बहिया जाणइ, ते अज्झत्थं जाणइ-एयं तुल्लमन्तेसिं" (आचारांग, 1-1-4) अर्थात् जो अपने अन्दर अपने सुख-दुःख की अनुभूति को जानता है, वह बाहर दूसरों के सुख-दुःख की अनुभूति को भी जानता है। जो बाहर को जानता है, वह अन्दर को भी जानता है। इस प्रकार दोनों को, स्व एवं पर को एक तुला पर रखना चाहिए। इस वाक्य में परम विज्ञान समाया हुआ है। आज विज्ञान केवल भौतिक विकास के तत्त्वों की संज्ञा पा रहा है तो आध्यात्मिक ज्ञान अन्तर्विद्या से सम्बन्धित किया जाता है। लेकिन इन दोनों शब्दों में दोनों की समन्वय शक्ति का एक दूसरे की पूर्ति से सिंचन किया गया है। जहां बाह्य मन में जिज्ञासाएं पैदा होती हैं और चिन्तन के क्षणों में सोचने की गहराई में पहुंचते हैं तो लगता है कि वहां से विज्ञान और धर्म के समन्वय की आवाज उठती है। ...इन्सान का दृष्टिकोण बाहरी वस्तुओं से बंधा . हुआ होता है। वह दृश्य जगत् में अपनी पूर्ण स्थिति का समावेश करना चाहता है। दृश्य जगत् से परे जगत् की-अदृश्य सृष्टि की कल्पना भी प्रायः नहीं बनती है। उसकी तरफ मुड़ना कठिन होता है। लेकिन दृश्य और अदृश्य दिखने वाले और नहीं दिखने वाले इन दोनों प्रकार के तत्त्वों का सम्मिश्रमण ही यह सृष्टि है। सिर्फ बाहर ही बाहर देखें और अन्दर में नहीं जावे तो जीवन की अवस्था अधूरी रहेगी। जीवन के अन्दर ही अन्दर देखें और बाहर को सर्वथा ओझल कर दें तो वह अवस्था भी परिपूर्ण नहीं बनेगी। सर्वथा भीतर का एकान्तिक रूप भी परिपूर्ण नहीं होता और सर्वथा बाहर की हलचल भी जीवन को अपंग रख देती है। इन्सान यदि अपनी समग्र जिन्दगी को सम्पूर्ण रूप से देखने की जिज्ञासा रखता है तो उसे भीतर और बाहर का समन्वय समुचित रूप से साध लेना चाहिए। वह बाहर को परिपूर्ण रूप से देख सकेगा। भीतर का समग्र स्वरूप सही मायने में तभी सामने आ सकेगा जब वह बाहरी दृश्यों को भी उनके सही परिप्रेक्ष्य में देख लेगा।...यों देखें तो विज्ञान और धर्म में भेद पर्व और पश्चिमका है। विज्ञान का मख्य आधार भौतिकता है तो धर्म ने अपना मलाधार आध्यात्मिकता को माना है। भौतिकता शब्द भूत से बना है और भूत का अर्थ होता है जड़-पुद्गल। जड़ाधारित वह भौतिकता और अधि+आत्मिक हो यानी आत्मा की तरफ जाना है वह है आध्यात्मिकता। तो एक जड़ की दिशा है और दूसरी चेतन की दिशा है। वस्तु स्वरूप की दृष्टि से तो जड़ और चेतन की संयुक्त दशा है, जबकि जड़ और चेतन एकदम विपरीत तत्त्व है। अत: भेद तो स्पष्ट है, लेकिन क्या समन्वय भी उतना स्पष्ट है? एक दृष्टि से यह कहें कि समन्वय भी उतना ही स्पष्ट है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ...दृश्य और अदृश्य तत्त्वों के सम्मिलन से ही इस सृष्टि की रचना हुई है। यह निर्विवाद तथ्य है। वीतराग वाणी भी इसकी पुष्टि करती है कि नौ तत्त्वों में मूल तो दो ही तत्त्व हैं-जीव और अजीव । जब जीव तत्त्व अजीव तत्त्व से मिलता है तभी जीवन की सृष्टि होती है। जीव है सो आत्मा है और अजीव है वह शरीर है। शरीर भी कोई तो इन बाहरी आंखों से दिखाई देते हैं तो कोई इतने सूक्ष्म होते हैं कि वे इन आंखों से नहीं दिखाई देते। सूक्ष्म जीवाणुओं के शरीर की ऐसी ही स्थिति होती है। स्वयं कार्मण शरीर अति सूक्ष्म होता है-सूक्ष्म होकर भी वह जड़ ही होता है। ...वस्तु स्वरूप की दृष्टि से विचार करें तो जीव और अजीव दोनों एकदम विपरीत तत्त्व हैं। लेकिन दोनों का जो रूप इस संसार 338
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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