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सुचरित्रम्
ध्यान या भाव समाधि मात्र नहीं है, अपितु जीवन की धारा के साथ एकात्म्य या तादात्म्य स्थापित करना तथा उसके लिए सृजनात्मक प्रगति में भाग लेना भी है। मानव चरित्र को विकास के उस वांछनीय बिन्दु तक पहुंचाना भी धर्म का दायित्व है जहां परस्परता से जुड़ी एक संगठित जीवनशैली का निर्माण हो सके। विश्व भ्रातृत्व का जन्म तभी हो सकता है जब व्यक्ति के मन में पहले संघ भावना उत्पन्न हो जाए। ऐसी पृष्ठभूमि की रचना करने का दायित्व भी धर्म का ही है। धर्म के मानवीय होने का अर्थ ही यह है कि संवेदना, सहानुभूति, विश्वास, स्नेह, सहयोग, सौहार्द आदि गुणों के प्रति मनुष्य की पूर्ण ग्रहणशीलता बने तथा साथ ही सामूहिक जीवन के छोटे से बड़े घटकों में लोकतंत्रात्मक मनोवृत्ति की प्रयोगधर्मिता चलती रहे, जिससे श्रेष्ठतर अभिप्राय उद्भूत हो। धर्म यदि इस स्वरूप से हीन है तो उसे मानवीय कहने में संकोच करना होगा। उसी प्रकार विज्ञान की भी यह बहुत बड़ी बुराई है कि वह ऐसी यांत्रिक सभ्यता फैलाता जा रहा है जिसमें व्यक्ति निजी प्रेरणाओं से वंचित रखा जा कर एक अस्तित्वहीन इकाई जैसा बनाया जा रहा है। विज्ञान व्यक्ति को नहीं, वस्तुओं को नियंत्रक बना रहा है। परन्तु मनुष्य के अन्तःकरण में अपने अस्तित्व और पहचान का एक स्तर अवश्य होता है, सत्य का एक क्रम भी होता है एवं आत्मीयता की ऐसी चिनगारी निरन्तर दमकती रहती है जो उसे पूर्ण रूप से यांत्रिक बनने नहीं देती है। अत: ज्वलन्त समस्या यही है कि धर्म और विज्ञान के सामंजस्य से नई जीवनशैली का निर्माण व विकास कैसे किया जाए तथा उसके योग्य मानव चरित्र को किस प्रकार ढाला जाए और पनपाया जाए। इस उद्देश्य को पाने के लिए तत्त्व और गुण धर्म, प्रतीति और यथार्थ एवं आत्मनिष्ठा और वस्तुनिष्ठा के बीच विभाजक भेद न रहे। दोनों विज्ञान एवं धर्म की विशेषताओं का मानव चरित्र में ऐसा शुभ व स्वस्थ सम्मिश्रण किया जाए कि विधान एवं धर्म का सामंजस्य परस्पर नियंत्रक भी बने तो व्यक्ति से लेकर विश्व तक की मानवीय मूल्यवत्ता का सम्पोषक भी।। __ और आज का आशाजनक तथ्य यह है कि धर्म और विज्ञान के बीच के भेद अब घटने-मिटने लगे हैं। धर्म फिर से विज्ञान होने लगा है और विज्ञान धर्म की ओर बढ़ने लगा है। क्लासिकी भौतिकी का दृष्टिकोण नियतिवादी भी है, यांत्रिक तो है ही। क्वांटम यांत्रिकी ने अलग-अलग वस्तुओं की सत्ता की अवधारणा निर्मूल कर दी है। विज्ञान में व्यक्ति अब केवल प्रेक्षक ही नहीं, भागीदार भी माना जाने लगा है। विज्ञान को मानवीय स्वरूप देने के प्रयत्न भी व्यापक आधार पर होने लगे हैं। पारमाणविक भौतिकी ने वैज्ञानिकों को वस्तुओं की तात्त्विक प्रकृति की पहली झलक दिखाई है। रहस्यवादियों की तरह अब भौतिकशास्त्री भी सत्य के असंवेदी अनुभव का अध्ययन कर रहे हैं और उन्हीं की तरह उन्हें इस अनुभव के विरोधाभासी पहलुओं का सामना करना पड़ा है। तब से आधुनिक भौतिकी के मॉडल और उसके बिंब पूर्वीय दर्शनों की विचारधारा से मेल खा गये हैं। ब्रह्मांड का अंतिम लक्ष्य क्या है-यह जानने के लिए आधुनिक भौतिक शास्त्री विशुद्ध भौतिकी सिद्धान्तों से परे भी शोध कर रहे हैं। यह क्रम संसार के रहस्यवादी दृष्टिकोण का मार्ग प्रशस्त करता है, ताकि धर्म का वैज्ञानिक दृष्टि से पुनरुत्थान हो सके। आधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों के दार्शनिक निष्कर्ष सर्वथा विलक्षण है।
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