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सुचरित्रम्
जम जाएंगे तथा गृहस्वामी की छाती पर मूंग दलते रहेंगे। घर की रक्षा के समान ही आचरण के अन्तरंग की रक्षा का प्रश्न रहता है। यह प्रश्न धर्माचरण के संबंध में तो अति गंभीर माना जाना चाहिए। यदि व्यक्ति सामान्य अर्थात् लौकिक आचरण और धर्माचरण में पूरी सतर्कता और सावधानी बरतता है तो हर हाल में आचरण शुद्धि की रक्षा कर सकता है और अपनी आन्तरिकता तथा उसके कारण आचरण को विकृत होने से बचा सकता है।
किन्तु व्यक्ति की सीमा के उपरान्त भी कई बार ऐसे सामूहिक प्रसंग बन जाते हैं जो किसी भी प्रकार के आचरण को भ्रष्टता की ओर खींच ले जाते हैं। ऐसे में सामूहिक सजगता जरूरी होती है, जो व्यवस्थित रूप से किए गए चरित्र विकास के प्रयासों से पैदा की जा सकती है तथा जागृत बनाए रखी जा सकती है। फिर भी यहां कुछ उन कारणों की चर्चा करें जो मुख्य रूप से धर्माचरण को शिथिल और निष्क्रिय बनाते हैं और उसे जड़ता की दिशा में बहुत दूर तक खींच ले जाते हैं कि वह धर्माचरण करीब-करीब रूढ़ हो जाता है और धर्म की आत्मा को मार देता है। धर्माचरण की रूढ़ता के इन कारणों की बारीक समीक्षा की जानी चाहिए ताकि चरित्र विकास की प्रक्रिया में कछ ऐसी दृढ़ता का समावेश करने के प्रयास किए जाए कि कोई भी कारण धर्माचरण को रूढ़ न बना सके और जो कुछ रूढ़ता घिरती भी रहे उसे यथा समय दूर करते रह कर आन्तरिकता की पवित्रता को प्रभावित न होने दी जाए। ऐसे किन्हीं कारणों का विश्लेषण इस प्रकार है
(1) कालक्रम का दुष्प्रभाव : कालक्रम नये को पुराना बनाता है-यह स्वाभाविक क्रिया रोकी नहीं जा सकती है, किन्तु अधिक सतर्कता व सावधानी के साथ इस क्रिया को काफी अंशों में अप्रभावी बना सकते हैं। सतत जागृति ही असली सावधानी है। सतत जागृति से वैसा ही उत्साह न्यूनाधिक मात्रा में बनाया रखा जा सकता है जैसा प्रारंभ में होता है। इसके लिये साध्य स्पष्ट रहना चाहिए तथा साधन आत्म-केन्द्रित होने चाहिए।
(2) उत्तराधिकारियों की स्वार्थपरता : जो भी महापुरुष धर्म सिद्धान्तों का प्रवर्तन करते हैं, . उनका उपदेश पूरे विश्व, सभी मानवों और प्राणियों के लिए होता है, किन्तु उनके बाद उनके उत्तराधिकारी अपने प्रवर्तक की लोकप्रियता का अपने हित में लाभ उठाना चाहते हैं, इसलिये वे संकुचित दायरे बनाते हैं, उनका नेतृत्व करते हैं, अपने अनुयायियों की बाड़े बन्दी करते हैं और मानव धर्म को कट्टर सम्प्रदाय में बदल देते हैं। इस स्वार्थपरता को बनाए रखने के लिए उनका पहला आक्रमण शुद्ध ज्ञान एवं शुद्ध आचरण पर होता है ताकि कट्टरता के वश में होकर अनुयायी अपना मान भी भूलें और उन्हें घेरने की हिम्मत भी छोड़ें।
(3)साम्प्रदायिक संकुचितता : विश्वव्यापी मानव धर्म को अगर छोटी सी सम्प्रदायों में कैद करते रहें तो कैसे बचेगी उसकी यथार्थता? वह तो धर्म (सम्प्रदायों) के ठेकेदारों के हाथों की कठपुतली मात्र हो जाएगा और कट्टरता के रंग में रंगे उसके अनुयायी परीक्षा बुद्धि को गिरवी रख कर अपने धर्म के समाज नायकों के वफादार बन जायेंगे। ऐसे में प्राणिमात्र को एक सूत्र में पिरोने वाला धर्म खंड-खंड होकर एकता को चूर-चूर करने वाला बन जाता है। इतना ही नहीं, साम्प्रदायिकता विवाद, संघर्ष, जिहाद, आतंक, हिंसा तक आगे से आगे घातक रूप लेती रहती है। तब धर्माचरण
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