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________________ जब धर्माचरण रुढ़ होता है तो बाधित होता है चरित्र विकास अवधि के बाद सामान्य जन भी आसानी से परख सके कि उस क्रिया का मूलभाव क्या है? प्रत्येक क्रिया अपने मूल भाव अर्थात् उद्देश्य को प्रतिबिम्बित करने वाली होनी चाहिए। __ यों क्रिया और भाव आचरण के दो पक्ष हुए-एक बाहर प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला पक्ष और दूसरा भाव का आधारगत पक्ष जो क्रिया में स्पष्ट झलकना चाहिये। इससे आचरण की एकरूपता बनती है और एकरूपता से ही उसकी प्राभाविकता है। सोचें कि आपके सामने ऐसे दो व्यक्ति खड़े हैं, जिन्हें आप लम्बे अर्से से गहरे तक जानते हैं। उन दोनों में से एक ऐसा है, जो जैसा सोचता है, वैसा ही बाहर कहता है और हमेशा अपनी कथनी और करनी में एकरूपता रखता है। दूसरा पहले से ठीक विपरीत वृत्ति का है। हकीकत में वह क्या सोचता है, किसी पर जाहिर नहीं होने देता-फिर जो कहता, करता है, वह कुछ अलग होता है। किसी के भी कुछ लम्बे सम्पर्क में रहने से एक व्यक्ति की वृत्ति की जानकारी हो जाती है। लोक व्यवहार में भी आप किसी व्यक्ति की वृत्ति के आधार पर ही उसकी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता का मूल्यांकन करेंगे फिर धर्माचरण का तो निस्संदेह मौलिक महत्त्व है और इसमें तो आन्तरिकता और भाव को ही प्रधानता दी गई है। निष्कर्ष यह है कि भाव प्राण है तो क्रिया उसका बाह्य कलेवर। जैसे आत्मा तथा शरीर के • संयुक्त रहने पर ही जीवन रहता है और आत्मा निकल जाय तब वह शरीर अन्तिम संस्कार के योग्य शव बन जाता है। मृत शरीर फिर घर में रखने लायक नहीं रहता। वैसा ही धर्माचरण का कोई भी क्रियाकांड हो उसकी जीवन्तता उसके अन्तर्निहित उद्देश्य व भाव पर टिकी रहती है। यदि क्रिया उस भाव से शून्य हुई तो समझिए कि वह निरर्थक हो गई यानी कि त्याज्य बन गई। बिना प्राण का कलेवर किस काम का? यदि किसी उत्तेजना, मोह, हठ, कट्टरता या दुराग्रह आदि के वशीभूत होकर अमुक निरर्थक क्रिया को पकड़े रखा जाता है तो वह मृत क्रिया मृत शरीर की तरह सड़ेगी, दुर्गंध फैलाएगी और सबके बीच विकारों का फैलाव करेगी। ऐसे कटु अनुभव व्यक्ति और समाज को होते आए हैं और विद्रोह या संघर्ष अथवा अन्य प्रकार से क्रिया की निरर्थकता को समाप्त कर उसके सही अर्थ की प्रतिष्ठा पुनः पुनः की जाती रही है। सुदृढ़ एवं श्रेष्ठ चरित्र विकास ही समय पर सुन्दर समाधान निकालता रहा है। धर्माचरण की रूढ़ता के कारण अनेक, पर परिणाम एक: ___ समझें कि कोई गृहहीन अपने लिये नया घर बनाता है। निर्माण में आवश्यक धन खर्च करता है, मजबूती और कारीगरी का पूरा ध्यान रखता है तो वह घर जरूर ही मजबूत और सुन्दर बनेगा। लेकिन समय की मार से कोई भी नहीं बचता। समय बीतने के साथ घर का क्षरण जरूरी है और सुन्दरता व मजबूती में भी कुछ फर्क आता ही है। किन्तु यदि गृहस्वामी सतर्क और सावधान रहता है, घर के रख-रखाव को भली-भांति सम्भालता है तो उस घर को लम्बे अर्से तक टिकाए रखने में कामयाब हो सकता है। कम से कम लम्बे अर्से बाद भी उसके यकायक गिरने और जानमाल को नुकसान पहुंचने की नौबत नहीं आएगी। इसके विपरीत लापरवाह गृहस्वामी घर की सफाई, सुन्दरता और मजबूती अल्पतम समय तक ही बनाए नहीं रख सकेगा। और गृहस्वामी ऊपर से गाफिल भी रहा तो चोर घुसेंगे, सामान ले जायेंगे, डाकू आ गए तो पूरी लूट मचाएंगे और गुंडे-मवाली घुस गए तो घर में ही 303
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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