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________________ सुचरित्रम् , ही उपस्थित करते हैं और उन्हीं के आधार पर अपना श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करते हैं। इसका यह अर्थ है कि धर्म अपने व्यापक अर्थ को खोकर केवल एक क्षरणशील संकुचित अर्थ में आबद्ध हो गया है। अतः आज के मनीषी, धर्म के अभिप्राय मतपंथों के अमुक बंधे-बंधाये आचार-विचार से लेते हैं, अन्य कुछ नहीं।...अध्यात्म, जो प्राचीनकाल में धर्म का ही एक आन्तरिक अंग था, जीवन-विशुद्धि का एक सर्वांगीण रूप है। अध्यात्म मानव की अनुभूति के मूल आधार को खोजता है, उसका परिशोधन एवं परिष्कार करता है। 'स्व' जो कि स्वयं से विस्मृत है, अध्यात्म इस विस्मरण को तोड़ता है। 'स्व' स्वयं ही जो अपने 'स्व' से अज्ञान तमस् का शरण स्थल बन गया है, अध्यात्म इसी अन्ध तमस को ध्वस्त करता है। वह स्वरूप-स्मति की दिव्य ज्योति जलाता है, अन्दर में सोए हए ईश्वरत्व को जगाता है, उसे प्रकाश में लाता है। राग, द्वेष, काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह के आवरणों की गन्दी परतों को हटा कर साधक को उसके अपने शुद्ध 'स्व' तक पहुंचाता है, उसे अपना अन्तर्दर्शन कराता है। अध्यात्म का आरंभ 'स्व' को जानने और पाने की बहुत गहरी जिज्ञासा से होता है और अन्ततः 'स्व' के 'पूर्ण' बोध में, 'स्व' की 'पूर्ण' उपलब्धि में इसकी परिसमाप्ति है (ग्रंथचिन्तन की मनोभूमि, अध्याय 31 धर्म और जीवन, पृष्ठ 271, 279-80)।" सच्चा धर्म मानव का मल स्वभाव है. मानव जीवन है मानवता के मल्य हैं और सबके प्रति मानवीय कर्तव्यों का पंज है तथा उस धर्म का प्रभावशाली आचरण यही हो सकता है कि जीवन और धर्म घल-मिलकर एकरूप हो जाय-अद्वैत और अविभाज्य। व्यक्ति से लेकर विश्व तक यह एकरूपता प्रसारित और व्याप्त हो। अब नामधारी धर्म इस सच्चे धर्म के कितने पास हैं या कितने दूर? यह आलोचना का विषय है। आचरण के दो पक्ष : कौनसा प्राण, कौनसा कलेवर : चाहे धर्माचरण हो अथवा आचरण का कोई भी अन्य प्रकार-उसके दो पक्ष होते हैं-आंतरिक एवं बाह्य अथवा भावात्मक एवं क्रियात्मक। इसका प्रमाण यह है कि प्रत्येक क्रियाकांड अथवा रीतिरिवाज सोद्देश्य होता है। जो बाहर किया जाता हुआ दिखाई देता है, वह केवल उतना ही नहीं होता है, बल्कि उसके आगे पीछे भी बहुत कुछ ऐसा होता है जो दिखाई भले न दे, लेकिन वही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है। यह महत्त्वपूर्ण होता है आंतरिक अथवा भावात्मक पक्ष । देखते हैं कि एक व्यक्ति अमुक धार्मिक क्रिया कर रहा है, जैसे सामायिक, संध्यावन्दन, स्वाध्याय, कीर्तन या कोई अन्य-तो बाहर की इस क्रिया का कुछ आन्तरिक उद्देश्य होता है। सामायिक करने वाले को एक खास परिवेश में देखकर पहचान की जा सकती है कि वह अमुक क्रिया कर रहा है। किन्तु देखना यह होता कि वह उस क्रिया के आंतरिक उद्देश्य की पूर्ति भी कर पा रहा है या नहीं। सामायिक का उद्देश्य है सब के प्रति समभाव का उदय। पूर्णतया समभाव लम्बे अभ्यास के परिणाम में हो सकता है, किन्तु सामायिक कर रहे उपासक की आन्तरिकता में अवश्य समभाव संचरित होना चाहिये और उसकी झलक सामायिक के दौरान उसके बाह्य में दिखाई देनी चाहिए। आशय यह है कि भाव और क्रिया परस्पर एकरूप होनी चाहिए, बल्कि क्रिया पर भाव का प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होना ही चाहिए। यह तभी संभव हो सकता है जब प्रत्येक क्रिया आन्तरिकता से उपजे और भावाभिभूत बनी रहे, बल्कि एक 302
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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