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जब धर्माचरण रुढ़ होता है तो बाधित होता है चरित्र विकास
जागृत है, सर्वहितैषीणी है, सन्मार्ग दर्शिका है, आनन्द और प्रेम से परिपूरित है, वहां ही सच्चा धर्म है। जीवन जगमगाता है धर्म प्रकाश फैलाता है। यों धर्म सहज है, सुबोध है, सुगम है। ___तब कोई भी जिज्ञासु यह प्रश्न उठा सकता है कि विभिन्न नामों या प्रतीकों से जाने, जाने वाले धर्म आज इतने जटिल और दुर्बोध क्यों प्रतीत होते हैं? किसी भी धर्म का प्रवर्तन तो सर्वकल्याण के उद्देश्य से ही हुआ, किन्तु प्रवर्तकों के उत्तराधिकारियों ने उसे विशेष प्रकार की वेशभूषा, क्रियाकांड और परम्पराओं से बांध कर जटिल बना दिया, जिससे उनकी गद्दियां, उनका वर्चस्व और असर तो संकुचित होकर भी बच गया, किन्तु उसने अनुयायियों के विवेक को बांधकर श्रद्धा के अंधे कुए में फैंक दिया। कूप मंडूक की कितनी औकात? इस क्रियाकलाप में धर्म जीवन से अलग पड़ने लगा। धर्म जीवन का स्वभाव नहीं, बस एक खिलौना भर रह गया कि घड़ी भर के लिये कोई भी धार्मिक क्रियाकांड़ किया, फिर खिलौने की तरह उसे दूर पटक दिया और समझ लिया कि दिन भर के बाकी कामों में उनका धर्म से कोई वास्ता नहीं। धर्मस्थल की साधना अलग हो गई और घर की साधना अलग। धर्मस्थल पर चींटी को सताते भी जैसे कलेजा कांपता है किन्तु धंधे में गरीबों का खून चूस लेने पर भी मन में तनिक भी कम्पन नहीं होता-यह कैसा विपर्यास है? धर्म का यह द्वैत क्या सहन करने लायक भी है? ___ धर्म के सच्चे स्वरूप के संबंध में गूढ़ चिन्तक स्व. अमर मुनि जी का चिन्तन अपूर्व प्रेरणा प्रदान करता है। वे बताते हैं-"यदि अन्तर में धर्म का प्रकाश हो गया हो तो कोई कारण नहीं कि बाहर में अंधकार रहे। अन्तर के आलोक में विचरण करने वाला कभी बाहर के अंधकार में नहीं भटक सकता।" धर्म का सच्चा स्वरूप यही है कि यदि अन्तर में प्रकट होकर वह आनन्द की स्रोतस्विनी बहाता है, तो वह निश्चय ही सामाजिक, पारिवारिक एवं राष्ट्रीय जीवन के किनारों को सरसब्ज बनायेगा। नदी का, नहर का और तालाब का किनारा एवं परिपार्श्व कभी-भी सूखा नहीं रह सकता। वहां हरी-भरी हरियाली की मोहक छटा छिटकती मिलेगी। यदि बाह्य और अन्तर जीवन में फर्क है, तो उसका मतलब यही है कि बाहर और भीतर दोनों और दिवाला ही दिवाला है, जीवन में धर्म का देवता प्रकट हुआ ही नहीं है, सिर्फ उसका स्वांग ही रचा गया है-वंचना और प्रतारणा मात्र है।...धर्म का संबंध आचार (आचरण) से है। आचार को प्रथम धर्म कहा गया-"आचार: प्रथमो धर्मः।" यह ठीक है कि बहुत पहले धर्म का संबंध अन्दर और बाहर दोनों प्रकार के आचारों से था और इस प्रकार अध्यात्म भी धर्म का ही एक आन्तरिक रूप था। इसीलिये प्राचीन जैन ग्रंथों में धर्माचरण के दो रूप बताये गये हैं-निश्चय और व्यवहार। निश्चय अन्दर में 'स्व' की शुद्धानुभूति एवं शुद्धोपलब्धि है, जबकि व्यवहार बाह्य क्रियाकांड है बाह्याचार का विधि-निषेध है। निश्चय त्रिकालाबाधित सत्य है, वह देश काल की बदलती हुई परिस्थितियों से भिन्न नहीं होता है, शाश्वत एवं सार्वत्रिक होता है। वह देशकाल के आधार पर बदलता रहता है, शाश्वत एवं सार्वत्रिक नहीं होता। दिनांक तो नहीं बताया जा सकता, किन्तु काफी समय से धर्म अपनी अन्तर्मुख स्थिति से दूर हट कर बहिर्मुख स्थिति में आ गया है। आज धर्म का अर्थ विभिन्न सम्प्रदायों का बाह्याचार संबंधी विधि-निषेध ही रह गया है। धर्म की व्याख्या करते समय हर मत और पंथ के लोग अपने परम्परागत विधि-निषेध संबंधी क्रियाकांडों को
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