SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 380
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुचरित्रम् जैसे रूढ़ ही हो गया। सती के सिवाय उन्हें कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था-शायद वे यही समझ रहे थे कि अपने कंधे पर जो वे उठाए फिर रहे हैं, वह सती का शव न होकर स्वयं जीवित सती ही है। इसी कारण वे किसी भी प्रकार उसे छोड़ना नहीं चाह रहे थे। किन्तु ब्रह्मा और विष्णु प्रत्येक उपाय से अपने प्रयत्न को सफल होते देखना चाहते थे कि शव को महादेव के कंधे से अलग कर दिया जाए जिससे उनकी आहत चेतना पुनः सजग हो जाए तथा उनका वह उन्माद एवं भ्रम समाप्त होकर ज्ञानध्यान का प्रकाश पुनः जगमगा उठे। यह सनातन सत्य है कि ज्ञान और प्रकाश चैतन्य का प्रतीक व लक्षण होता है। जीव चाहे सक्ष्म से भी सूक्ष्म क्यों न हो-उसमें संज्ञा की विद्यमानता होती है, क्योंकि जीव का लक्षण ही ज्ञान को कहा गया है। ज्ञान नहीं तो जीव नहीं। जड़ ज्ञान हीन होता है। यही कारण है कि चेतन सदा चेतन रहता है, जड़ में परिवर्तित कदापि नहीं होता। इसी प्रकार जड़ कभी चेतन नहीं हो सकता। किन्तु एक तथ्य अवश्य देखा जाता है और वह यह कि जब चैतन्य के मन मानस में ज्ञान क्षीण होने लगता है, विवेक कुन्द पड़ जाता है और श्रद्धा अंधी बन जाती है तब उसकी समझ रूढ़ हो जाती है। रूढ़ का अर्थ है रूढ़ि में जकड़ी हुई विवेक शून्यता। ऐसी रूढ़ता से जब चेतना ग्रसित हो जाती है तो भ्रम और उन्माद उसे इस तरह कैद कर लेते हैं कि वह चेतना जड़ तो नहीं होती, किन्तु जड़वत अवश्य हो जाती है। ___ तो इस कथा का सिलसिला यह है कि महादेव का मन-मानस भी कुछ ऐसी ही जड़ता से ग्रसित हो गया था। इस कथा का मर्म यह है कि इतने महान् देवता भी यदि जड़ता से ग्रस्त हो सकते हैं तो सामान्य जन की बात क्या कहें? सामान्य जन को शायद चेतावनी देने के लिये ही यह कथा है कि उसे अपनी विवेक बुद्धि को किस प्रकार सहेज कर सक्रिय एवं सतर्क बनाए रखनी चाहिए। रोग जितनी ज्यादा जटिलता पकड़ ले तो उसका निदान उतना ही कठिन भी करना पड़ता है। महादेव के क्रोध की जोखिम अपने सिर पर लेकर भी विष्णु ने अन्तिम उपाय सोच लिया। अपने सुदर्शन चक्र को उन्होंने आदेश दिया कि वह अत्यन्त कुशलता से सती के शव को खंड-खंड काटता रहे कि महादेव को उसका तरन्त भान न हो। आदेशित चक्र ने वैसा ही किया और जब शव का अन्तिम खे भी भूमि पर गिर पड़ा और कंधा एकदम खाली हो गया तब यकायक महोदव की चेतना लौटी। तब ज्ञानी-ध्यानी को क्रोध नहीं आया, बल्कि वे जागरूक हो गए। उनके मन में पश्चाताप उठा कि उनसे ऐसा क्यों हो गया? सच तो यह है कि जब कभी किसी भी कारण से चेतना पर भ्रम, उन्माद और जड़ता का आवरण चढ़ जाता है तो वैसी जड़ता व्यक्ति के विवेक को ही भ्रष्ट नहीं करती है, अपितु समाज के सारे परिवेश को भी बिगाड़ती और कलंकित बनाती है। यही रूढ़ता है। क्या है सच्चा धर्म और कैसा होना चाहिये उसका आचरण : :: . जीवन के साथ जिसका अनन्य संबंध हो, वही सच्चा धर्म है। वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है (वत्थु सहावो धम्मो) अर्थात् प्रत्येक द्रव्य का उसका अपना स्वभाव होता है और वह स्वभाव ही उसका धर्म माना जाएगा। जैसे अग्नि है, उसका स्वभाव है उष्णता तो उष्णता उसका धर्म हुआ। जीवन चैतन्य-स्वरूप है तो चेतना उसका स्वभाव हुआ, धर्म हुआ। चेतना सदा निर्मल रहे, प्रकाश फैलावे और सारे जगत को प्रकाश से जगमगाती रहे-यह चेतना का धर्म माना जाएगा। जहां चेतना 300
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy