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जब धर्माचरण बहोताहैतो बाधित होता है घरित्र विकास
रूढ़ होगा ही और निष्प्रभावी भी।
(4)अंध श्रद्धा को बढ़ावा : कट्टरता, ज्ञान, विवेक, आचरण सबको गर्त में डाल देती है और जो पहले सच्ची श्रद्धा होती है, उसे सम्प्रदाय-मोह में जकड़ कर अंध श्रद्धा में बदल देती है। बन्द आंखों वालों को कहीं भी ले जाओ, कुछ भी कराओ और चाहे कुएं में धक्का दे दो, आपत्ति करने की दशा ही कहां रहती है? यों धर्माचरण रूढ़ ही क्या, जड़वत् हो जाता है।
(5) सिद्धान्तों में तोड़ मरोड़ और अलगाव : प्रवर्तक के सिद्धान्तों को बाद के नायक अपने स्वार्थों के अनुसार तोड़ते रहते हैं और अलगाव की गलियां निकालते रहते हैं। इस प्रकार एक सम्प्रदाय भी अखंड नहीं रहती-कई उपसम्प्रदायों में बंटती रहती है और अलगाव का क्रम जारी रहता है। यों सिद्धान्तों की अवमानना होती है, चेतना शून्य की जाती है, तब धर्माचरण की पवित्रता का रक्षक ही कौन बचता है? आपसी खंडन-मंडन, द्वेष-विद्वेष में ही शक्ति का अपव्यय होता है और धर्माचरण ढूढ़े नहीं मिलता।
(6) क्रियाकांडों पर ही जोर : आन्तरिकता की इस प्रकार हत्या होती रहने के बाद धर्माचरण का मृत शरीर ही तो बचता है। बस, आज के अधिकांश धर्मनायक बाहर के क्रियाकांडों पर ही पूरा जोर देते हैं, अलग-अलग प्रतीकों को मजबूत बनाकर अपनी दुकानदारी पक्की करते हैं और प्रदर्शनों तथा आडम्बरों की धूम मचा कर अपनी यश लालसा को तृप्त करते हैं। ___ इस प्रकार के अनेक कारण हो सकते हैं, जिनके दुष्प्रभाव से सम्यक् सिद्धान्तों की प्रभाविकता मंद होती है और धर्माचरण सिर्फ बाहर के दस्तूर बन कर रह जाते हैं, जो बाहर की लालसाएं पूरी करते हैं-भीतर को तो छूते ही नहीं। किन्तु इन सारे कारणों का परिणाम एक ही सामने आता है कि सम्यक्त्व दब जाता है, मिथ्यात्व उभर आता है और धर्माचरण अपनी सारी यथार्थता, पवित्रता एवं उत्थान क्षमता खो देता है। ऐसे धर्माचरण को फिर से सम्यक् बनाने के लिये भगीरथी प्रयास की आवश्यकता खड़ी हो जाती है। रूढ़ता की पहली मार पड़ती है चरित्र-चेतना और विवेक-बुद्धि पर:
धर्माचरण जब रूढ़ हो जाता है, आतंरिकता को पवित्र बनाए रखने की अपनी क्षमता खो देता है और यशलिप्सु धर्मनायकों के प्रति कट्टरता का प्रतीक बन जाता है, तब उस भ्रष्टाचरण की पहली और सांघातिक मार पड़ती है चरित्र-चेतना पर तथा विवेक-बुद्धि पर। सम्प्रदायों की भेड़ियाधसान में सिर झुकाए-आंख बंद किये जब व्यक्ति बेभान-सा चलता है तब उसका विवेक नष्ट हो जाता है तथा चरित्र भ्रष्ट हो जाता है। ऐसे में सच्चे धर्म का अस्तित्व तो बचेगा ही कहां और कैसे? ____ आचारांग सूत्र के छठे अध्ययन 'धूत' के पांचवें उद्देशक 'सदुपदेश और शान्त साधना' के संदर्भ में अपनी टिप्पणी देते हुए संत संतबाल कहते है-"समर्थ साधक सद्बोध श्रवण करने की इच्छा रखने वालों को धर्म का रहस्य समझाते हैं-फिर चाहे वह मुनि साधक हो या गृहस्थ साधक-सबको अहिंसा, त्याग, क्षमा, सद्धर्म का फल, सरलता, कोमलता, निष्परिग्रहता आदि सर्व विषयों की यथार्थता बताते हैं।" किन्तु धर्म के विराट अर्थ को साम्प्रदायिकता में ले जाने से उसे संकीर्ण रूप
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