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सुचरित्रम्
किया, लेकिन उनके साथ भिखमंगों जैसी भीड़ देखकर वह मन ही मन उत्तेजित-सा हो गया, बोलामहात्मन्! आप इन सब लोगों को राज-दरबार में किस प्रयोजन से ले आए हैं? यह राजमहल है, इसकी प्रतिष्ठा का भी आपने खयाल नहीं किया। महात्मा ने छोटा-सा उत्तर दिया-'ये सब बेघर और दुःखी हैं, इसलिए इन्हें राजमहल में रहने के लिए ले आया हूँ।' तब तो राजा का क्रोध बाहर फूट पड़ा'महात्मन्! आप होश में तो हैं कि ऐसे लोगों को राजमहल में बसाने के लिए ले आए हैं? यह कोई धर्मशाला नहीं है।' ___महात्मा ने कुछ तीक्ष्ण स्वर में कहा-'यह धर्मशाला नहीं तो और क्या है? इसे धर्मशाला समझ कर ही तो मैं इन सबको यहाँ लाया हूँ।' राजा आपा खोते हुए बोले-'मेरा राजमहल आपको धर्मशाला लग रहा है ! आप सन्त नहीं होते तो मैं आपको न जाने क्या दंड दे बैठता?' इस पर महात्मा शान्त हो गए और पूछने लगे-'राजन्! अभी तो तुम इस राजमहल में रह रहे हो, लेकिन तुमसे पहले यहाँ कौन रहता था?' राजा बोला-'मेरे पिता श्री।' उनसे पहले के प्रश्न का उत्तर दिया-'मेरे दादा श्री।' और इंस तरह महात्मा ने पीढ़ियाँ गिनवा दी। फिर बोले-'तुम्हारे बाद इसमें कौन रहेगा?' 'मेरा राजकुमार'राजा भी धीमा पड़ा। ___ महात्मा ने तब पूछा-'राजन् ! अब बताओ, धर्मशाला किसको कहते हैं? उसी आवास स्थान को न, जहाँ यात्री आते हैं, कुछ समय के लिए ठहरते हैं और फिर चले जाते हैं और यही क्रम बना रहता है। ठीक है न?' राजा निरुत्तर हो गया। तब महात्मा ही आगे बोले-'तुम्हारा राजमहल भी तो ऐसा ही हुआ न?'
राजा सिर झुकाए खड़ा रहा। महात्मा ही बोलते रहे-'राजन्! धर्मशाला में सभी को ठहरने का अधिकार होता है और इस कारण ये बेघर लोग भी यहीं ठहरेंगे। लेकिन मैं तुम्हें एक प्रेरणा देना चाहता हूँ।' राजा ने हाथ जोड़कर कहा-'महात्मा ! मेरी आंखें खुल गई हैं और मेरा झूठा अभिमान बह गया है, अतः अब आपकी प्रेरणा निश्चित रूप से मेरे जीवन के उद्धार का ही कोई मार्ग खोलेगी। मैं तत्पर हूँ।'
महात्मा ने कहा-'राजन्! मुझे हर्ष है कि तुम्हारे मन का संकोच मिट गया है, इस कारण मैं बताना चाहता हूँ कि तुम्हारा यह राजमहल तो बहुत छोटा है, लेकिन जीवन तो विशाल एवं महान् बन सकता है, फिर तुम प्रबुद्ध क्यों न बनो? यह तभी संभव है जब तुम सम्पूर्ण संसार को धर्मशाला मान लो और अपने जीवन को महान् बनाने का पुरुषार्थ करो।'
राजा ने निवेदन किया-'मुझे बताइये कि मैं क्या करूँ, जिससे मेरा जीवन महान् बन सके?'
महात्मा ने कहा-'राजन्! इसी क्षण से सारे संसार को एक धर्मशाला मान लो। जानो कि यह संसार अनन्त रहस्यों और संभावनाओं से भरा पड़ा है। आत्मा में अनन्त शक्ति है। आत्म-साधना/ शोध में प्रवृत्त हो जाओ। जितनी प्रबल तुम्हारी आत्मा के बारे में जिज्ञासा और साहसिकता होगी, तुम्हारी उपलब्धियाँ भी उतनी ही विलक्षण होगी। तुम अपने लक्ष्य में सफल बनो'-का आशीर्वाद देकर महात्मा वहाँ से प्रस्थान कर गए।