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रहस्यों, संभावनाओं तथा प्रत्यक्ष उपलब्धियों से भरा है यह संसार !
बाद में राजा भी अपने छोटे-से अपनेपन को अतीव विस्तृत स्वरूप देने के संकल्प के साथ सम्पूर्ण संसार को अपना बनाने के लिये राजपद, राजमहल और नगर से निवृत्त होकर अपनी आत्मयात्रा पर चल पड़ा ।
क्यों जानना चाहते रहे हैं सब संसार के छिपे हुए रहस्यों को ?
जीवन प्राप्त हो जाना एक बात है, परन्तु उसे जीना एकदम दूसरी ही बात। जीवन कितना लम्बा मिलता है - यह उल्लेखनीय तथ्य नहीं । सार्थक तथ्य यह है कि वह जीवन कितना कार्यक्षम रहा, हितान्वेषक एवं लोकोपकारक सिद्ध हुआ? किसी के जीवन के कितने वर्ष बीत गए - यह कोई नहीं देखता। देखा जाता है तो यह कि वह कैसे जिया-क्या उसने कोई एक भी ऐसा अनूठा काम किया, जिसे देख, समझ और महसूस करके सामान्यजन कृतकृत्य हो गए हों ?
• अधिसंख्य लोग सांसों का जीवन जीते तो जरूर हैं, पर प्रतिपल मर-मरकर जीते हैं। चाहे भय से मरते रहे हों या क्रोध, मान, माया, लोभ के कीचड़ में कुल-बुलाते हुए मरते हों अथवा अज्ञान की अंधेरी गलियों में ठोकरें खाते हुए मरते हों पर प्रतिपल वे मर-मर कर जीते हैं। ऐसा जीवन यथार्थ (अर्थ में) जीवन कहलाने के योग्य नहीं होता । वह मृत्यु सम जीवन ही होता है या यों कहें कि कीड़ों-मकोड़ों-सी जिंदगी जी कर ऐसे लोग मानव जीवन की अमूल्य निधि को निरर्थक ही नष्ट कर देते हैं। अज्ञानियों की मृत्यु बार-बार होती है, परंतु पंडित जनों का मरण एक बार ही होता है। (बालाणं अकामं तु मरणं असई भवे। पंडियाणं सकामं तु उक्कोसेण सइं भवे - उत्तराध्ययन, 5/3)
मानव जीवन को पाना एक अमूल्य निधि पाने जैसा है और निधि का जितना सदुपयोग होगा, वह उतनी ही सार्थक कहलाएगी - इस संसार में ऐसे धीर, वीर, गंभीर पुरुषों की कमी नहीं रही है और न
किसी भी युग में रहती है या रहेगी। ऐसे पुरुष अपने पराक्रम, अपनी सेवा और साधना के बल पर ऐसे उत्कृष्ट चरित्र को प्राप्त कर लेते हैं, जिसके माध्यम से वे सर्वजनहित से संबंधित रहस्यों का उद्घाटन करते हैं, सबके विकास की संभावनाओं को सामने लाते हैं और ऐसी उपलब्धियाँ इस संसार को दे जाते हैं जो दीर्घकाल तक इस (विशाल जगत्) को प्रकाशमान बनाए रखती है। ऐसे महापुरुष जीवन को तो जीवन्तता के साथ जीते ही हैं परंतु मृत्यु के उपरान्त भी ( संसार को ) अपने योगदान की रोशनी में जीवित ही बने रहते हैं ।
ऊर्जावान महत्वाकांक्षी युवाओं को अपने चरित्र निर्माण के संदर्भ में अपने जीवन का भी कोई सर्वजनहितकारी लक्ष्य अवश्य निर्धारित करना चाहिए कि जीवन को वे जिएं, कोरी सांसें ही न लेते रहें। प्राथमिक तौर पर जीवन में मिलने वाली असफलता से उन्हें निराश नहीं होना चाहिये । यह असफलता ही सफलता की पहली सीढ़ी बनती है। आखिर असफल वही तो होता है जो कर्म में प्रवृत्त होता है, निष्क्रिय तो क्या सफल होगा और क्या असफल ? किसी शायर ने ठीक ही कहा- 'शह सवार ही गिरते हैं मैदाने जंग में, वह तिफल क्या गिरेगा, जो घुटनों के बल चले?'
ऐसी सक्रियता को लेकर ही धीर, वीर, गंभीर पुरुष आत्मा के छिपे हुए रहस्यों को उद्घाटित
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