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________________ आचार के उच्चतर बिन्दु, अहिंसक क्रांति और व्यक्तित्व गठन चरित्र-विकास उत्तरोत्तर अधिकाधिक विशुद्धि की ओर बढ़ने लगता है। यहां सच्चा मुनिपना आ जाता है-सतत जागरूकता आ जाती है। (8) काषायिक वृत्तियों से निवृत्ति 'बादर निवृत्ति' कहलाती है। यह सोपान ऐसा है कि यदि निवृत्ति टूटे तो ठेठ नीचे तक पतन हो जाए और निवृत्ति की स्थिरता के साथ ऊपर के सोपान पर चढ़ गए तो फिर पतन का खतरा खत्म-फिर ऊपर से ऊपर चढ़ते रहने का क्रम ही रहेगा। इस सोपान पर परीक्षा होती है कि काषायिक वृत्तियां सिर्फ दबी हैं-उपशमित ही हुई हैं अथवा नष्ट यानी क्षय हो गई हैं। दबी हुई वृत्तियां फिर से उभर आती है तो पतन निश्चित हो जाता है, लेकिन क्षयीभूत वृत्तियों के फिर से उभर आने का कोई सवाल ही नहीं। एक बात और उपशमित वृत्तियां ग्यारहवें स्थान तक ऊपर ले जा सकती है, पर उसके बाद पतन होता ही है। किन्तु क्षयीभूत वृत्तियां सीधी दसवें से बारहवें स्थान में पहुंच कर पतन के खतरे को खत्म कर देती है। वास्तव में स्थूल निवृत्ति गुण विकास को परिपक्व नहीं होने देती है। (9) अनिवृत्ति बादर सम्पराय वाले इस सोपान का अर्थ यह है कि अब. सामान्य-सी काषायिक वृत्तियां बची हैं और साधक की अवस्था विशेष उत्पन्न हो गई है। इसमें कषाय संक्लेश की कमी के साथ परिणामों की शुद्धि बढ़ती जाती है। इस शुद्धि का स्तर इतना बढ़ जाता है कि उसके अध्यवसायों की भिन्नता पिछले स्थान की भिन्नताओं से बहुत कम हो जाती हैं। उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार की वृत्तियां इस स्थान तक पहुंचती हैं। इस स्थान के समसमयवर्ती जीवों के परिणामों में निवृत्ति नहीं होती। (10) इस स्थान में सक्ष्म सम्पराय यानी लोभ कषाय के सक्ष्म खंडों का ही उदय रह जाता है। शेष सभी कषाय या तो उपशमित रहती है अथवा क्षय हो जाती है। उपशम और क्षय-दोनों स्थितियां इस स्थान तक भी बनी रहती है। इसमें शेष बचे लोभ कषाय से निवृत्ति के प्रयास होते हैं। (11) इस स्थान तक पहुंची आत्मा का गुण विकास उपशान्त कषाय वीतराग छास्थ कहलाता है अर्थात् जिनकी कषाय उपशान्त हो गई हैं, जिनको राग यानी माया और लोभ का भी बिल्कुल उदय नहीं है और जिनको छाया (आवरणभूत घाती कर्म) लगे हुए हैं। इस स्थान पर पहुंचने वाला गुण विकास अगले स्थान पर तभी पहुंच सकता है जो उपशम श्रेणी का न होकर क्षपक श्रेणी का होता है। उपशम श्रेणी का गुण विकास इस स्थान से पतित हो जाता है और वह नीचे चौथे स्थान तक गिर जाता है। यहां से आत्मा का पतन आरोह क्रम से भी होता है। इस क्रम में ग्यारहवें से चौथे स्थान के बीच में भी कहीं ठहराव हो सकता है। पतन का असर जोरदार हो तो वह पहले स्थान तक भी हो सकता है। उपशमक एवं क्षपक श्रेणियों के उतार चढ़ाव का क्रम एवं स्थानों की अवाप्ति भिन्न-भिन्न होती है। दबी हुई आग कभी-भी कहीं भी फिर से प्रज्वलित हो सकती है किन्तु नष्ट की हुई आग के फिर से भड़कने का प्रश्न ही नहीं रहता। (12) यह स्थान उपशान्त से क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ का हो जाता है, जहां के गुण विकास में मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है, फिर भी शेष तीनों घाती कर्म शेष रह जाते हैं। क्षीण 291
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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