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सुचरित्रम्
निरन्तरता कैसे बनाई रखी जा सकती है। इस चढ़ाई में विवेक दृष्टि और गुण साधना सदैव जागरूक रहे कि कहीं पांव फिसल न जाय और उपलब्ध प्रगति समाप्त न हो जाए, क्योंकि कुछ स्तरों तक ऐसी आशंका रहती है। आचरण के साथ भावमयता भी उतनी ही आवश्यक होती है ताकि काषायिक विचार उस साधना पथ में बाधाएं न खड़ी करते रहें। गुणों के चौदह स्थानों का संक्षिप्त विवरण एवं विश्लेषण इस प्रकार है(1) मिथ्या दृष्टि वाला निम्नतम वह स्थान है जहां सही ज्ञान आदि के कोई लक्षण नहीं होते। वहां
सब कुछ मिथ्या होता है, मिथ्या दिखाई देता और मिथ्या ही किया जाता है। आस्था भी मिथ्या
यानी विपरीत होती है। किन्तु सम्यक्त्व की ओर चढ़ाई का क्रम यहीं से शुरू होता है। (2) सम्यक् दृष्टि को उतार के समय यहां मिथ्या से द्वन्द करना होता है। द्वन्द में हार-जीत चलती
रहती है। मिथ्या से सम्यक् दृष्टि और सम्यक् से मिथ्या दृष्टि की ओर डांवाडोल गति बनी रहती है। किन्तु इस सोपान पर आत्मा को गुणों का आस्वादन हो जाता है और गुणों की ओर
उसकी रुचि बढ़ जाती है। (3) मिश्र अवस्था इस अगले सोपान पर भी बनी रहती है, किन्तु आस्था का चक्र तेजी से सम्यक्
दृष्टि की ओर मुड़ता रहता है। यह अवस्था अधिक नहीं ठहरती और गति की निश्चितता स्थिर होने लगती है-या तो ऊपर या फिर नीचे डोलायमान अवस्था बनी रहती है। सम्यक्
दृष्टि की स्थिरता अगले सोपान की ओर गतिशील बनाती है। (4) सम्यक् दृष्टि स्थिर होने लगती है लेकिन यहां तक वह व्रत धारण करने की स्थिति में नहीं
आती है-अविरति रहती है। विरति का अर्थ होता है कि हिंसक एवं पापजनक प्रवृत्तियों से अलग हो जाना। वह सामर्थ्य यहां तक नहीं उपजता है। इस सामर्थ्य के कई स्तर होते हैं और उनके प्रकट होते लक्षण ऊपर की ओर बढ़ने का संकेत करते हैं। यहां तक कषायों का गहरा
असर बना रहता है जिससे व्रतों को लेना और पालना मुमकिन नहीं बनता है। (5) व्रतों को ग्रहण करने की वृत्ति इस सोपान पर बनती है-वह भले देश रूप ही हो। यह देश विरत
दशा का उदय होता है। पापजनक कार्यों से यहां सर्वथा नहीं, बल्कि आंशिक निवृत्ति ही संभव होती है। यह अणुव्रतों का सोपान होता है जहां चाहे एक ही श्रावक व्रत अंगीकार करे अथवा एक से अधिक बार ही व्रतों को ग्रहण करके पाला जाए। यहां व्रत धारण दो करण
तीन योग से होता है, अनुमोदन का त्याग नहीं होता। (6) मुनि धर्म के व्रतों का इस सोपान पर ग्रहण भी होता है और पालन भी, किन्तु संयत होने पर भी
उस पर प्रमाद की छाया घिरी रहती है। यह संयत पूर्ण शुद्ध नहीं, प्रमत्त होता है। प्रमाद
आवश्यक गुण विकास को बाधित करता रहता है। (7) इस सोपान पर प्रमाद समाप्त होकर संयतता के साथ अप्रमत्तता आ जाती है और साधक अप्रमत्त
संयत बन जाता है। प्रमाद के सारे दोष-निद्रा, विषय, कषाय, विकथा आदि यहां समाप्त हो जाते हैं। आचरण की अशुद्धि का कारण प्रमाद छूट जाता है। यहां से आत्म-विशुद्धि एवं
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