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आचार के उच्चतर बिन्दु, अहिंसक क्रांति और व्यक्तित्व गठन
एवं शिक्षाव्रत मूल अणुव्रतों के प्राण स्वरूप है। जिस तरह शरीर तभी तक उपयोगी एवं कार्य साधक है, जब तक कि उसमें प्राण है, उसी तरह गुणव्रत व शिक्षाव्रत के होने पर ही मूल अणुव्रत भी उपयोगी एवं कार्य साधक हो सकते हैं। इस बात को दृष्टि में रख कर शास्त्रकारों ने श्रावक के बारह व्रतों को मूलव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत इन तीन भागों में विभक्त किया है। श्रावक के मूल पांच व्रत - स्थूल अहिंसा, स्थूल सत्य, स्थूल अचौर्य, स्थूल ब्रह्मचर्य और परिग्रह परिमाण है। इन पांच मूलव्रतों के पश्चात दिक् परिमाण, उपभोग-परिभोग परिमाण और अनर्थ दंड विरमण-ये तीन गुणव्रत हैं तथा सामायिक, देशावगासिक, पौषधोपवास और अतिथि-संविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। व्रतों को धारण एवं पालन करने में सावधानी और विवेक से काम लेना चाहिये (जवाहर किरणावली, 33वीं किरण, गृहस्थ धर्म, तृतीय भाग, विषय प्रवेश पृष्ठ 4-7)।
गृहस्थ की चारित्रिक विशेषताएं अपने उच्चतर स्तर पर साधु धर्म या महाव्रतों में प्रतिफलित हो सकती है। तदनन्तर भावनापरक आचार गत स्तरों में उच्चतरता उच्चतमता तक पहुंच सकती हैविकार मुक्ति, वीतरागता एवं साधना की सम्पूर्णता। आचार के प्रत्येक बिन्दु के साथ गुणशीलता
यानी कि चरित्र का विकास होता रहता है जो सम्पन्नता के चरम तक पहुंचता है, आचार के चरम के . साथ। आचार का उच्चतम बिन्दु ही चरित्र विकास का शिखर होता है। विकासशील गुणों के चौदह स्थान उनका संक्षिप्त विवरण व विश्लेषण :
दो प्रकार की संस्कृतियां होती हैं-एक गुणमूलक संस्कृति जो सदा सत्य सिद्धान्तों के प्रति आस्था रखती है और दूसरी संस्कृति व्यक्ति पूजा को विशेष महत्त्व देती है। व्यक्ति पूजा न किसी सामान्य जन को और न किसी साधक को तटस्थ अपना पक्षहीन रहने देती है। वह उसे एक तरफ झुकाती है तो निश्चित है कि दूसरी तरफ से उपेक्षित बनाती है। इस कारण वह भेद, हठ और पक्ष के भंवर में गिर जाता है और अपनी आस्था को आहत बना लेता है। इस भंवर से राग और द्वेष की ज्वालाएं उठती हैं, जो सामान्य जन के विवेक को तो जला ही देती है, पर साधक को भी साबूत कहां छोड़ती है? वह पथ भ्रष्ट हो जाता है। ऐसी व्यक्ति पूजा की संस्कृति मानव के लिये हितावह नहीं हो सकती है। विश्व और मानव का कल्याण गुणमूलक संस्कृति के माध्यम से ही किया जा सकता है, जहां व्यक्ति का नहीं, उसके गुणों को महत्त्व मिलता है। इस कारण गुणों की अवाप्ति के लिये ही विवेक काम करता है, साधना समर्पित होती है। आत्मीय गुणों का विकास अर्थात् चरित्र का विकास व्यक्ति के लिये तथा उस विकास से सामाजिक चरित्र का निर्माण ही सकल जीवन विकास का मूल सूत्र है।
सिद्धान्त सनातन होता है, क्योंकि वह गुणमूलक होता है। वह गुणी को उस गुण में ढालता है और किसी के साथ कोई भेद नहीं करता। सिद्धान्तों पर आधारित सभ्यता या संस्कृति ही दीर्घजीवी होती है। इसे ही मूल्यों की संस्कृति कहते हैं। ऐसे गुणमूलक सिद्धान्तों पर यदि सम्यक् रूप से आचरण किया जाए तो वे मानव को मानवतामय ही नहीं, मानव को देवत्व में ढाल देने की भी क्षमता रखते हैं। इस आचरण की विकासशील विभिन्न अवस्थाओं को भली-भांति समझ लेना चाहिए। आत्मा के गुण विकास के चौदह स्थानों का उल्लेख है कि किस प्रकार के आचरण या चरित्र के बल पर एक सोपान से दूसरे सोपान पर चढ़ा जा सकता है और एक से ऊपर के दूसरे सोपान तक अपनी प्रगति की
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