________________
सुचरित्रम्
ज्ञान करके सम्यक्त्व का शुभारंभ किया जाता है। जब तक मिथ्या का उन्मूलन न हो, सम्यक् स्थितियां जमती नहीं है और रत्नत्रय का मूल सम्यक्त्व है। इस दृष्टि से आचार का प्रथम बिन्दु सम्यक्त्व से प्रारंभ होता है और उच्चतर बिन्दुओं की ओर बढ़ता है। तब व्रतों के धारण एवं पालन का क्रम चलता है। जो सच्चाई देखने की क्षमता जगाएगा, वही स्वयं को और अपने परिवार आदि घटकों को आचरण की सुघड़ता प्रदान कर सकेगा। व्यक्ति जैसे समाज का सबसे छोटा घटक होता है तो सामाजिकता का छोटा घटक होता है परिवार। इस कारण व्यक्ति के चरित्र निर्माण का पहला कर्मस्थल होता है उसका परिवार, अतः आचरण की दृष्टि से व्यक्ति को एक सद्गृहस्थ बनना चाहिए-ऐसा सद्गृहस्थ अपने व्रतों (श्रावक धर्म) की अग्नि परीक्षा देता हुआ समाज के छोटे घटक को सबसे बड़े घटक विश्व का हित साधने में सक्षम बनावें। इस दिशा में गृहस्थ धर्म का विशेष महत्त्व सब जानते हैं। श्रीमद् जवाहराचार्य ने इस विषय पर बड़े ही क्रान्तिकारी प्रवचन दिये हैं, जिन का संकलन किरणावली भाग 31 से 33 में हुआ है। उनके अनुसार-"त्याग भावना को आचरण में लाने के लिये शास्त्रकारों ने दो मार्गों का विधान किया है पहला मार्ग है सांसारिक पदार्थों अथवा वास्तविक सुख प्राप्त होने के बाधक कारणों का सर्वथा त्याग। दूसरा मार्ग है आंशिक अथवा देश से त्याग।" कई व्यक्ति ऐसे होते हैं कि उन्होंने जिनको हेय मान लिया हैं उन कार्यों या पदार्थों को अविलम्ब पूरी तरह त्याग देते हैं। इस तरह का त्याग करने वाले महाव्रती कहे जाते हैं।... किन्तु जो लोग इस सीमा तक नहीं पहुंचे हैं अथवा सांसारिक कार्य व्यवहार एवं विषय भोग के साधनों से जिनका ममत्व पूरी तरह नहीं हटा है अथवा जो इन सब को सर्वथा त्यागने में असमर्थ हैं, फिर भी जो इनके त्याग का मार्ग अपना कर उस पर आगे बढ़ना चाहते हैं, वे इन सबको आंशिक अथवा देश से त्यागते हैं। ऐसे लोगों के लिये शास्त्रकारों ने पांच अणुव्रतों का विधान किया है। यद्यपि ऐसे देशत्यागियों का भी ध्येय तो वही रहता है, जो पूर्ण त्यागियों का होता है, परन्तु आंशिक या देश से त्याग करने वाले उस ध्येय की ओर धीरे-धीरे बढ़ना चाहते हैं। शास्त्रकारों द्वारा बताये गये पांच अणुव्रतों का पालन गृहस्थावस्था में किया जा सकता है और इन व्रतों को पालने वाले व्रतधारी श्रावक कहे जाते . हैं।...यद्यपि महाव्रती न होने वालों के लिय शास्त्र में पांच अणुव्रतों को स्वीकार भी करते हैं, परन्तु गृहस्थावस्था में ऐसी अनेक बाधाएं उपस्थित होती हैं अथवा ऐसे आकर्षक कारण हैं कि जिनसे स्वीकृत अणुव्रतों का पालन करने में कठिनाइयां जान पड़ने लगती हैं। अतः ऐसे अणुव्रतधारियों को उन कठिनाइयों से बचाने के लिये शास्त्रकारों ने तीन गणव्रत और चार शिक्षाव्रत बताए। तीन गणवत पांच अणुव्रतों में शक्ति संचार करते हैं, विशेषता उत्पन्न करते हैं, उनके पालन में होने वाली कठिनाइयों को दूर करते हैं और मूल अणुव्रतों को निर्मल रखते हैं।...अणुव्रतों की सहायता के लिये बताये गये तीन गुणव्रतों में वृत्ति संकोच को विशेषता दी गई है। जब तक गमनागमन कम नहीं किया जावे, उपभोग-परिभोग की मर्यादा नहीं की जावे, आजीविका के लिये की जाने वाली प्रवृत्ति के विषय में अनौचित्य का विवेक करके अनुचित प्रवृत्ति न त्याग दी जावे, तब तक धारण किये हुए अणुव्रतों का पालन करने में कठिनाइयों का उपस्थित होना स्वाभाविक ही है।...इसी तरह गुणव्रतों की रक्षा के लिये चार शिक्षाव्रतों का जो विधान किया गया है, उन शिक्षाव्रतों को स्वीकार करना भी आवश्यक है, क्योंकि गुणव्रतों में स्वीकृत वृत्ति संकोच को सुदृढ़ बनाने वाले शिक्षाव्रत ही है। गुणव्रत
288