________________
आचार के उच्चतर बिन्दु, अहिंसक क्रांति और व्यक्तित्व गठन
छोड़ेगा। पास के नाले से वह गीली मिट्टी उठा लाया - मुनि के सिर पर उस मिट्टी से ऊंची पाल बनाई और बीच में, खड्डे में उसने चिता के धधकते अंगारे भर दिये। फिर पैर पटकता हुआ सोमिल ब्राह्मण वहां से चला गया।
मुनि के मस्तक पर वे धधकते अंगारे अपना खाद्य पाकर अधिक लपलपाने लगे। पूरी खोपड़ी सीझने-सी लगी-वह कल्पनातीत वेदना का समय था । किन्तु मुनि सब कुछ त्याग चुके थे तब देह भी भला उनकी कहां रह गई थी? वे तो अपने आत्मीय भावों में लवलीन थे। अपार कष्ट का अनुभव था किन्तु उन्होंने उस अनुभव को स्वीकार ही नहीं किया। वह चरम परीक्षा की घड़ी थी। रंच मात्र भी उन्होंने अपने मस्तक को हिलने नहीं दिया। उन्हें विदित था कि कहीं खिसक कर एक भी अंगारा नीचे गिरा तो वह न जाने कितने छोटे बड़े जीवों की जान ले लेगा। वे तो संसार के समस्त प्राणियों को अभयदान देकर ही तो मुनि बने हैं, फिर क्या वे ही उस अभय को समाप्त कर दें? दयावान अन्त:करण ऐसा कदापि नहीं कर सकता है। मुनि परम स्थिर और शान्त भाव से उस भीषण पीड़ा को सहते रहे। उनका मन-मानस दयामय भावों से ओतप्रोत था- न सोमिल ब्राह्मण पर द्वेष का कोई अंश था और न ही अपने संबंधियों के प्रति कोई राग । वे तो रागद्वेष को पूर्णतया नष्ट करके वीतराग बन गये। दया गुण की उनकी चरम साधना सफल हुई, सम्पूर्ण और सम्पन्न हुई ।
इसी प्रकार आचार के एक-एक गुण में आत्मोत्थान की अपार संभावनाएं भरी पड़ी हैं - सच्चा साधक उन संभावनाओं को साकार रूप देकर जगत् के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करता है।
आचार के उच्चतर बिन्दु तथा गुणशीलता की सम्पन्नता :
सोचें कि किसी को सांप काट जाए तो क्या करना होगा? उसकी सफल चिकित्सा के लिये सबसे पहले यह जानकारी जरूरी है कि उसकी सही औषधि क्या है? सिर्फ जानकारी मौके पर डगमगा सकती है - इस कारण इस औषधि पर पक्का भरोसा होना भी जरूरी। लेकिन इतने मात्र से चिकित्सा नहीं हो जाएगी। चिकित्सा की असल बात यह होती है कि उस औषधि का आत्मविश्वास के साथ प्रयोग किया जाए। कोरी औषधि ले लेने से भी काम पूरा नहीं होगा। उसके सारे पथ्यों का जी जान से पालन करना होगा, जैसे नींद नहीं आने देना आदि। यह सब एक समयावधि तक करने के बाद ही सर्पदंश का असर दूर हो सकता है। इस प्रक्रिया में सही जानकारी, सही विश्वास और सही आचरण तीनों का संयोग जरूरी है। सबसे ज्यादा जरूरी होती है सांप काटे की एकनिष्ठता एवं एकाग्रता ।
ऐसी ही जीवन साधना की प्रक्रिया होती है - सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन एवं सम्यक् चारित्र । रत्नत्रय में सभी रत्नों का अपना-अपना महत्त्व है किन्तु अग्नि परीक्षा सम्यक् चारित्र अर्थात् आचार की साधना में ही होती है। कोई इस अग्नि को धीरे-धीरे झेलता हुआ आगे बढ़ता है तो कोई मुनि गजसुकुमार के समाम इस अग्नि को एक ही बार में झेल कर अपनी गुणशीलता को आत्म- सम्पन्नता में रूपान्तरित कर देता है। यह कठिन अध्यवसाय एवं श्रेष्ठ साधना के उतार चढ़ाव की बात है । सामान्य रूप से आचार की चरणवार साधना की जाती है। पहले ज्ञेय, हेय एवं उपादेय तत्त्वों का
287