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________________ सुचरित्रम् 286 गए, तब क्या काम अधूरा रहता? सारा काम पलों में पूरा हो गया । वृद्ध के पास श्री कृष्ण के प्रति अपना आभार प्रकट करने के लिये शब्द नहीं थे, वह सिर झुका हाथ जोड़ श्री कृष्ण के हाथी की बगल में खड़ा हो गया और तब तक खड़ा रहा जब तक वह हाथी उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गया। दया का मधुर प्रसाद पाकर वह फूला नहीं समा रहा था । छोटे भाई ने पूर्व दिन इसी प्रधान गुण के चरम चरण की साधना सम्पूर्ण की, अपने सर्वस्व का बलिदान देकर। ये बड़े भाई थे श्री कृष्ण तथा छोटे भाई गजसुकुमार थे। उस दिन भगवान् श्री मिनाथ नगर से बाहर उद्यान में विराज रहे थे और उनकी प्रवचन धारा में अवगाहन हेतु दोनों भाई राजमहल से सदलबल उद्यान की ओर जा रहे थे। श्री कृष्ण गजारूढ़ थे अपने छोटे भाई के साथ और साथ में अन्य दर्शनार्थी, आरक्षी आदि थे। प्रवचन सुनने के बाद दोनों भाई पुनः राजमहल लौटे तो गजसुकुमार ने नेमिनाथ की सेवा में दीक्षित होने का निर्णय ले लिया। सब ने बहुत समझाया, बड़े भाई ने तो यहां तक कहा कि आज ही तो सोमिल ब्राह्मण की पुत्री के साथ उसका संबंध हुआ है, फिर उसके इस निर्णय से पिता-पुत्री के हृदय पर कितना क्रूर आघात लगेगा। लेकिन गजसुकुमार के अड़िग वैराग्य के आगे किसी की समझाईश नही चली और न ही किसी अन्य बाधा पर उन्होंने विचार किया। तब दीक्षा समारोह आयोजित हुआ और राजकुमार गजसुकुमार मुनि गजसुकुमार बन गये। क्षित होने के तुरन्त बाद मुनि गजसुकुमार भगवान् के समीप उपस्थित हुए। उन्होंने निवेदन किया- भगवान्! मुझे ऐसी कठोर साधना का मार्ग दिखाइए कि मेरी उत्कंठा सफल हो जाए। भगवान सब कुछ जानते थे और यह भी कि नवदीक्षित मुनि की साधना के सम्पूर्ण होने का उसी दिन का योग है। उन्होंने आज्ञा दे दी-‘जाओ, आज रात तुम द्वारिका नगरी की श्मशान भूमि पर प्रतिमा धारण करके ध्यानस्थ हो जाओ - तुम्हें अपना परम और चरम प्राप्त हो जाएगा।' आज्ञा प्राप्त करके मुनि गजसुकुमार सोल्लास यथास्थान पहुंच गये। अंधकार की हल्की-हल्की चादर में श्मशान का दृश्य भयावना होता जा रहा था । इधर-उधर अनेक चिताएं प्रज्वलित हो रही थी तो चारों ओर फैले हुए नरमुंड और अस्थि पंजर उस दृश्य को अतीव भयानक बना रहे थे। ऐसे ही वीभत्स एवं भयावह दृश्य के बीच मुनि गजसुकुमार ध्यानस्थ हो गये - सब कुछ विसार कर आत्मचिन्तन में निमग्न । उस समय पास की ही एक प्रज्वलित चिता की रोशनी सीधी मुनि के चेहरे पर पड़ रही थी और उसमें मुनि की वह आकृति अद्भुत तेजोमयता से प्रदीप्त दिखाई दे रही थी। योग ऐसा बना कि सोमिल ब्राह्मण श्मशान मार्ग से नगरी को लौट रहा था, तभी उसकी नजर मुनि पर पड़ी। देखते ही वह चौंका कि आज ही तो उसकी दीनता को विचार में न लाते हुए उसकी लाक्षणिक पुत्री को राजकुमार ने पसन्द की थी और श्री कृष्ण के हाथों वाग्दान हुआ था और अभी ही राजकुमार मुनिवेश में यहां ध्यानस्थ हैं - यह सब कैसे हो गया? वह पहले दुःखी हुआ कि अब उसकी पुत्री का क्या होगा, फिर धार-धार रोया और तब वह भीषण क्रोध से कांपने लगा। उस क्रोध ने उसे भान भूला दिया वह बदला लेने पर उतर आया। उसकी पुत्री का जो होगा, हो जाएगा लेकिन वह विश्वासघाती अपने होने वाले दामाद को जीवित नहीं
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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