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सुचरित्रम्
कषाय इसीलिये इस स्थान का नाम है। इस स्थान के प्रवेश केवल क्षपक श्रेणी के गण
विकास से ही हो सकता है, अत: यहां से पतन का खतरा खत्म हो जाता है। (13) गुण विकास का यह वह अद्भुत स्थान है जहां सर्वोच्च ज्ञान कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है।
चारों घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं और योग व्यापार शेष रहता है जो सयोगी केवल कहलाता है। सयोगी केवल अवस्था की कालावधि एक अंतर्मुहूर्त से लेकर कुछ कम एक करोड़ पूर्व तक की हो सकती है? योग का अर्थ है मन, वचन, काया की प्रवृत्ति जो प्रश्नों के उत्तर देने, उपदेश देने में प्रयुक्त होती है। हलन चलन आदि क्रियाओं में काया योग का उपयोग होता है। यहां रागद्वेष का समूल विनाश हो जाता है। यहां समुद्घात की क्रिया होती है जिससे चारों अघाती कर्मों की स्थिति समान बना दी जाती है। आवश्यकता नहीं होने पर यह क्रिया नहीं
की जाती है। (14) इस स्थान पर योग व्यापार भी समाप्त हो जाता है-केवली सयोगी से अयोगी हो जाते हैं। तीनों
प्रकार के योगों का निरोध हो जाता है। इस स्थान की स्थिति पांच लघु अक्षर (अ. इ. उ. ऋ. ऋ.) के उच्चारण जितनी होती है। तीनों योगों के निरोध का क्रम स्थूल से चलकर सूक्ष्म तक पहुंचता है। तब सम्पूर्ण अनिवृत्ति की अवस्था हो जाती है। तब शैलेशीकरण से संसार में बांधकर रखने वाले समस्त कर्मों का अन्त हो जाता है। वह सर्वोच्च गुण विकास सिद्धावस्था
का वाहक बन जाता है। नींव हिली तो इमारत ढही और छत डली तो काम सही:
महावीर ने अपनी प्रथम धर्म देशना में प्रबोध दिया कि जो ममत्व बुद्धि का परित्याग कर देता है, वही वस्तुतः परिग्रह का त्याग कर सकता है (जे ममाइयमई जहाइ, से जहाइ ममाइयं-आचारांग, 1-2-6)। इस प्रबोध का दूसरा पक्ष यह होगा कि जो ममत्व बुद्धि का त्याग नहीं करता, वह ममत्व से ग्रहण किये जाने वाले परिग्रह का भी त्याग नहीं कर सकता है। यह सत्य है कि जब तक ममत्व बुद्धि का परित्याग नहीं होता, व्यक्ति की पदार्थों के प्रति आसक्ति बनी रहती है। आसक्ति के समाप्त हुए बिना साधना, गुण विकास एवं चरित्र निर्माण की स्वस्थ अनुरक्ति पैदा नहीं होती है। यह अनुरक्ति नहीं तो सच्चे सुख की अनुभूति नहीं। आसक्ति ही समस्त दुःखों एवं अविकास की जड़ है। इसके रहते रागद्वेष का उन्मूलन नहीं होता और वीतरागता का गुण विकास नहीं हो सकता है। जब ममत्व बुद्धि घटेगी और मिटेगी तभी समत्व गुण की उत्पत्ति एवं अभिवृद्धि हो सकेगी। एक को त्याग अनेक ग्रहण करने की कल्पनाएं एवं चिन्ताएं जब तक चलती रहेगी, मानव अपने गुण या चरित्र विकास के लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठ नहीं हो सकेगा।
इस संदर्भ में यह जानना आवश्यक है कि सही अर्थों में त्यागी कौन हो सकता है? त्यागी की परिभाषा है कि जो इष्ट, कान्त, मनोज्ञ, मनोनुकूल विषय सामग्री को प्राप्त करके भी उससे विमुख हो जाता है अर्थात् स्वेच्छा से उसका त्याग कर देता है वही सच्चा त्यागी है (जेय कंते पिए भोए, लद्धे वि पिट्ठी कुव्वई, साहीणे चयइ भोए से हु चाई त्ति वुच्चइ-दशवैकालिक सूत्र )। जो स्वेच्छा से
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