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लक्ष्य निर्धारण शुभ हो तो संकल्प सिद्धि भी शुभ
तथा उनमें रहे हुए विकार और विषमताएं गल जाएगी। यही समत्व योग का प्रवेश द्वार होगा। विषमता जितने अंशों में मिटती जाएगी, तदनुरूप समत्व योग की अवाप्ति होती जाएगी। योग शुद्धि एवं कषाय मुक्ति इसके साधन होंगे और अशुभता से दूर शुभता का घनत्व इसकी कसौटी। साम्य योग की अवाप्ति ही विश्व बन्धुत्व की राह बनेगी। चरित्र विकास का शिखर है सत्य और सत्य के आग्रह का रूप :
चरित्र विकास की भावमयता की नींव है अहिंसा तो उसका शिखर है सत्य-भावमयता की साधना का सुफल। सत्य अनन्त है, सत्य ही भगवान् है। सत्य का साक्षात्कार एक पूर्णावस्था है। किन्तु जीवन में जब तक अपूर्णता रहती है सत्य का आग्रह रखना चाहिए, क्योंकि आग्रह अपूर्ण में ही होता, पूर्णता में तो आग्रह का क्या अवकाश? व्यक्ति अपूर्ण है अत: उसके भीतर सत्य के रूप में जो भी प्रतिभाषित होता है, वह भी अपूर्ण ही होगा। किन्तु अपूर्ण कहकर प्रतिभाषित सत्य को छोड़ा नहीं जा सकता है, बल्कि विचारों में समन्वय लाने वाली अनेकान्तवादी पद्धति का प्रयोग इसी उद्देश्य से किया जाए कि सत्यांश प्राप्त किये जा सकें तथा सत्यांशों का संचय हो सके ताकि एक दिन पूर्ण सत्य का साक्षात्कार हो। लेकिन तब तक साधक को प्रतिभाषित सत्य के साथ ही जीना-मरना होता है तथा सत्य की साधना को अक्षुण्ण बनाये रखना होता है। व्यक्तिगत धर्म इस कारण सत्य के उपलब्ध रूप के प्रति अनन्य आग्रह का ही रह जाता है। संक्षेप में अपूर्णता तक सत्य का आग्रह रखना होता है जो पूर्णता प्राप्ति के पश्चात् स्वतः समाप्त हो जाता है। ___ सत्य के प्रति आग्रह के संबंध में यह ज्ञातव्य है कि जिस पर आग्रह है, सत्य का स्वरूप या उसकी सीमा उतनी ही है। अनन्त सत्य का आग्रह ही सीमित होता है। फिर भी सत्य का आग्रह साधक को भद्र और विनीत बनाए रखता है। चरित्र का विकास भी इस आग्रह के साथ उच्चता की ओर गति करता है। जीवन स्वीकार और इन्कार-इन दोनों तटों को रख कर ही चल सकता है, जहां कुछ स्वीकार यानी लेना और इन्कारना यानी छोड़ना पड़ता है। विश्वास के बाद प्रश्वास आता ही है। इसका अर्थ है कि निषेध की शक्ति जीवन सामर्थ्य में गर्भित रहती है।
अहिंसा की भूमिका पर ही सत्य का सूत्रपात संभव होता है। अहिंसा में स्वीकार है क्योंकि जीवन अहिंसा से स्थिति और अवकाश प्राप्त करता है। स्थिति में गति सत्य के आग्रह से ही प्राप्त होती है। सत्य के आग्रह के बिना अहिंसा निष्क्रिय हो जाएगी, क्योंकि सत्य का आग्रह ही कर्म को जन्म देता है-गति और वेग सब वहां से आता है। अहिंसा के योग से जो होता है वह यह है कि कर्म से बंधन पैदा नहीं होता और उस गति से स्थिति में भंग नहीं आता। लेकिन यह स्पष्ट रहना चाहिए कि केवल अहिंसा वेग को खा जाती है, जीवन की क्षमता के लिये सत्य का आग्रह अनिवार्य धर्म होता है। अहिंसा मानो उसकी पीठ है कि जिस सत्य को सदा समक्ष रहना चाहिए। सत्य मानों वह शिक्षा है जिसके बिना अहिंसा मूल्यहीन हो जाती है।
एक बात और कि सत्य आग्रह की समाप्ति पर मिलेगा, लेकिन बुद्धि द्वारा कभी प्राप्त नहीं होगा। बुद्धि शब्द से चलती और मत तक पहुंचती है, किन्तु सत्य उसके पार रहता है। इस कारण बुद्धि में
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