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सुचरित्रम्
से कभी सत्य के आग्रह का निर्णय नहीं निकलता। बुद्धि उन्हीं संबंधों के नियमन के काम में आती है जो मूर्त होते हैं और चूंकि सत्य मूर्त नहीं होता, जिससे बुद्धि नहीं, बल्कि श्रद्धा में से सत्य के आग्रह की उद्भावना होती है। बुद्धि जब तक है, उपाय होता रहता है। उपाय जब हार जाते हैं अथवा बुद्धि जब हार जाती है तब सत्य की शरण सलभ होती है। सत्य की शरण में जाने पर कर्ता भाव भी समाप्त हो जाता है, वह जैसे सत्य में विलीन हो जाता है। यो सम्पूर्ण चरित्र विकास होता है भावमय-उच्चतर से उच्चतम तक: ___यों चरित्र विकास कहिए, आचरण बुद्धि कहिए अथवा समत्व योग की साधना-सब भावमयता . के रूप हैं। यह भावमयता ही अहिंसा में ढलती है, संयम में रमण करती है तथा सत्य के साक्षात्कार के लिये आगे बढ़ती है। उसी में भावमयता के लिये आगे बढ़ती है। इसी में भावमयता की चरण गति तीव्र से तीव्रतर, उच्च से उच्चतर होती रहती है। भावमयता एक प्रकार से आनन्द का प्रवाह होता है।
चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में इसी भावमयता को जगाने का कार्य किया जाना चाहिए ताकि आत्मस्थ होकर चिन्तन करें और समस्याओं के समाधान खोजें। चरित्र के निर्माण के साथ-साथ ही उसके विकास का दौर भी शुरु हो जाता है जो तीन चरणों में सत्य के समीप पहुंच सकता है।
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