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लक्ष्य निर्धारण शुभ हो तो संकल्प सिद्धि भी शुभ
विचारणा, सही विश्लेषण, अर्थ विज्ञान तथा तत्त्व ज्ञान निश्चय ।
13. सदाचारमय जीवन : आचार शुद्धि चरित्र विकास का मूल लक्षण है। यही कारण है कि जीवन के प्रत्येक व्यवहार तथा मन, वचन, कर्म के प्रत्येक व्यापार में नैतिकता को प्रधानता दी गई है । गुण सम्पन्न जीवन सदाचार के मार्ग पर चलते रहने को प्रतिबद्ध हो जाता है।
ऐसी ही अनेक ईंटों से जब चरित्र विकास की नींव भरी जाती है तब सुनिश्चित हो जाता है कि वह नींव पूरी तरह मजबूत हो गई है क्योंकि उसका सारा आधार अहिंसा का आधार होता है । उस अहिंसा के आधार पर निर्मित होने वाला चरित्र विकास का भवन निस्सन्देह गगनचुम्बी बन सकेगा। भाव-स्वभाव और चरित्र विकास का प्रगति चक्र :
भावों में तारतम्य आता रहता है, कभी वे ऊंचे चढ़ते हैं तो कभी नीचे भी उतरते हैं । किन्तु जब चरित्र विकास की नींव गुणों की ईंटों से भरी जाकर अहिंसाधारित बन जाती है, तब सिर्फ अपवाद को छोड़ कर भाव उत्थानगामी ही रहते हैं। इसका अर्थ यह है कि भाव विभाव दशा को प्राप्त नहीं होते और स्वभाव के स्वरूप को निखारते रहते हैं । तब स्वभाव का स्वरूप कितना उज्ज्वल और विशाल हो सकता है - उसकी कोई सीमा नहीं। इसका मूल सूत्र बन जाता है जगत् के समस्त प्राणियों के साथ मैत्री तथा सबके प्रति आत्मवत् संवेदना- "मित्ती मे सव्वभूएसु" एवं " आत्मवत् सर्वजगत् । " यह स्वरूप साम्यवाद का सच्चा स्वरूप होगा तथा इस भावमयता पर चरित्र विकास का प्रगति चक्र घूमता रहेगा।
साम्यवाद, समभाव, समता, समत्व- ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं किन्तु साम्यवाद की व्यापकता के लिए तीन करणीय या साधनीय तत्त्व है- अहिंसा, संयम और तप । अहिंसाधारित नींव के बाद ऊपर का निर्माण संयम के योग से चलता है। संयम के बिना जगत् मैत्री तो क्या सधे, एक व्यक्ति के साथ भी मैत्री को निभा पाना मुश्किल हो जाता है। संयम अर्थात् आत्म-नियंत्रण। आत्म-नियंत्रण से मैत्री का मार्ग निर्बाध हो जाता है। मित्र भाव आया तो समझिये कि समभाव अवश्य आ जायेगा । इसका कारण यह है कि संयम के आगमन के साथ ईर्ष्या, द्वेष, मोह, जड़ता, स्वार्थान्धता, क्रूरता आदि दोष स्वयमेव ही नष्ट हो जाते हैं। संयम का अर्थ होता है परिग्रह की मर्यादा और उसके प्रति बने मूर्छाभाव का त्याग | आदर्श निष्परिग्रही का संयम आग में तपे सोने की तरह निर्मल बन जाता है। संयम भाव के साथ जो भी क्रिया की जाएगी, वह अहिंसावृत्ति को पुष्ट बनाती जाएगी। चरित्र विकास के इस मोड़ पर हृदय, दया और करुणा से ओतप्रोत हो जाता है और अहिंसा का विधायी रूप पल्लवित और पुष्पित बनता है।
समभाव की पूर्ण सफलता तब होती है जब आत्मस्वभाव पूर्णतः प्रकाशित हो उठता है। आत्मस्वभाव की पूर्ण प्राप्ति ही आनंद के साक्षात्कार का प्रवेश द्वार है। अतः समभाव - चरित्र विकास का शिखर है और धर्म का सर्वोत्कृष्ट रूप है। इस समभाव को धर्म की उदार व्याख्या माने अथवा आर्य संस्कृति का मूल कहें - एक ही बात है। समभाव तीन स्तम्भों पर स्थिर रहता है
1. निःस्वार्थता - सर्व सद्गुणों का प्रधान शत्रु है स्वार्थ, क्योंकि स्वार्थ का विचार व्यक्ति को
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